आज हमारी दादी जी का जन्मदिन है
इस अवसर पर हमारे उद्गार
हम
बच्चों के जन्मदिवस को,
धूम-धाम
से आप मनातीं।
रंग-बिरंगे
गुब्बारों से,
पूरे
घर को आप सजातीं।।
आज
मिला हमको अवसर ये,
हम
भी तो कुछ कर दिखलाएँ।
दादी
जी के जन्मदिवस को,
साथ
हर्ष के आज मनाएँ।।
अपने
नन्हें हाथों से हम,
तुमको
देंगे कुछ उपहार।
बदले
में हम माँग रहे हैं,
दादी जी से प्यार-अपार।।
अपने
प्यार भरे आँचल से,
दिया
हमें है साज-सम्भाल।
यही
कामना हम बच्चों की
दादी
जियो हजारों साल।।
|
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बुधवार, 30 सितंबर 2015
बालकविता "दादी जियो हजारों साल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मंगलवार, 29 सितंबर 2015
"तीस सितम्बर-मेरी संगिनी का जन्मदिन है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
30 सितम्बर को
मेरी जीवनसंगिनी
श्रीमती अमरभारती का
61वाँ जन्मदिन है।
इस अवसर पर उपहार के रूप में
कुछ उद्गार उन्हें समर्पित कर रहा हूँ।
जन्मदिन पर मैं सतत् उपहार दूँगा।
प्यार जितना है हृदय में, प्यार दूँगा।।
साथ में रहते जमाना हो गया है,
“रूप” भी अब तो पुराना हो गया है,
मैं तुम्हें फिर भी नवल उद्गार दूँगा।
प्यार जितना है हृदय में, प्यार दूँगा।।
एक पथ के पथिक ही हम और तुम हैं,
एक रथ के चक्र भी हम और तुम हैं,
नाव जब भी डगमगायेगी भँवर में,
हाथ में अपनी तुम्हें पतवार दूँगा।
प्यार जितना है हृदय में, प्यार दूँगा।।
साथ तुम मझधार में मत छोड़ देना,
प्रीत की तुम डोर को मत तोड़ देना,
सुमन कलियों से सुसज्जित चमन में,
फैसले का मैं तुम्हें अधिकार दूँगा।
प्यार जितना है हृदय में, प्यार दूँगा।।
ज़िन्दग़ी में नित-नये आग़ाज़ होंगे,
दिन पुराने और नये अन्दाज़ होंगे,
प्राण तन में जब तलक मेरे रहेंगे,
मैं तुम्हें अपना सबल आधार दूँगा।
प्यार जितना है हृदय में, प्यार दूँगा।।
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सोमवार, 28 सितंबर 2015
"माता पूर्णागिरि, श्यामलाताल और नानकमत्तासाहिब" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
रविवार, 27 सितंबर 2015
दोहे "पागल की पहचान" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
पागलपन में हो गयी, वाणी भी
स्वच्छन्द।
लेकिन इसमें भी कहीं, होगा कुछ
आनन्द।।
--
पागलपन में सभी कुछ, होता बिल्कुल
माफ।
पागल का होता नहीं, कहीं कभी
इंसाफ।।
--
सुधा समझ कर पी रहा, पागल गम के
घूँट।
आता नहीं पहाड़ के, नीचे उसका
ऊँट।।
--
ऐसा पागलपन भला, जिसमें हो
लालित्य।
नित्य-नियम से बाँटता, सबको सुख
आदित्य।।
--
दुनिया में होती अलग, पागल की
पहचान।
समाधान करता नहीं, इसका
अनुसंधान।।
--
पागल का तो पूछता, कोई नहीं
मिजाज।
सिर्फ दिखावे के लिए, करते लोग
इलाज।।
--
न्यायालय में भी बढ़ा, पागलपन का
रोग।
अपने स्वारथ के लिए, पागल बनते लोग।।।
--
इस असार संसार में, बिखरे कितने
रंग।
आकुल मेरा मन हुआ, देख जगत के
ढंग।।
--
राजनीति का खा रहे, पुत्र-पौत्र-दामाद।
धर्म-प्रान्त का जात का, बढ़ा हुआ उन्माद।।
--
दर्पण गुरू समान है, मूरत होता
शिष्य।
जैसी होगी कल्पना, वैसा बने
भविष्य।।
--
गुरू-शिष्य पागल हुए, ज्ञान हुआ
विकलांग।
नहीं भरोसा कर्म पर, बाँच रहे
पंचांग।।
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शनिवार, 26 सितंबर 2015
गीत "नागों के नेवलों से, सम्बन्ध हो गये हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मतलब पड़ा तो सारे,
अनुबन्ध हो गये हैं।
नागों के नेवलों से, सम्बन्ध
हो गये हैं।।
बादल ने सूर्य को जब, चारों
तरफ से घेरा,
महलों में दिन-दहाड़े, होने
लगा अँधेरा,
फिर से घिसे-पिटे तब, गठबन्ध हो गये हैं।
नागों के नेवलों से, सम्बन्ध
हो गये हैं।।
सब राज-काज देखा, भोगे
विलास-वैभव,
दम तोड़ने लगा जब, तत्सम
के साथ तद्भव,
महके हुए सुमन तब, निर्गन्ध हो गये हैं।
नागों के नेवलों से, सम्बन्ध
हो गये हैं।।
विश्वासपात्र संगी, सँग छोड़ने लगे जब,
सब ठाठ-बाट उनके, दम तोड़ने लगे तब,
आखेट पर अनेकों, प्रतिबन्ध हो गये हैं।
नागों के नेवलों से, सम्बन्ध
हो गये है।।
अपनों ने की दग़ा जब, गैरों
ने की वफा हैं,
जिनको खिलाये मोदक, वो
हो गये खफा हैं,
घर-घर में आज पैदा, दशकन्ध हो गये हैं।
नागों के नेवलों से, सम्बन्ध
हो गये हैं।।
जब पाटने चले थे, नफरत की गहरी खाई,
लेकर कुदाल अपने, करने लगे खुदाई,
खतरे में आज सारे, तटबन्ध हो गये हैं।
नागों के नेवलों से, सम्बन्ध
हो गये हैं ।।
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शुक्रवार, 25 सितंबर 2015
गीत "जो नंगापन ढके बदन का हमको वो परिधान चाहिए" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जो नंगापन ढके बदन का हमको वो परिधान चाहिए।
साध्य और साधन में हमको समरसता संधान चाहिए।।
अपनी मेहनत से ही हमने, अपना वतन सँवारा है,
जो कुछ इसमें रचा-बसा, उस पर अधिकार हमारा है,
सुलभ वस्तुएँ हो जाएँ सब, नहीं हमें अनुदान चाहिए।
साध्य और साधन में हमको समरसता संधान चाहिए।।
प्रजातन्त्र में राजतन्त्र की गन्ध घिनौनी आती है,
धनबल और बाहुबल से, सत्ता हथियाई जाती है,
निर्धन को भी न्याय सुलभ हो,ऐसा सख़्तविधान चाहिए।
साध्य और साधन में हमको समरसता संधान चाहिए।।
उपवन के पौधे आपस में, लड़ते और झगड़ते क्यों?
जो कोमल और सरल सुमन हैं उनमें काँटे गड़ते क्यों?
मतभेदों को कौन बढ़ाता, इसका अनुसंधान चाहिए।
साध्य और साधन में हमको समरसता संधान चाहिए।।
इस सोने की चिड़िया के, सारे ही गहने छीन लिए,
हीरा-पन्ना, माणिक-मोती, कौओ ने सब बीन लिए,
हिल-मिलकर सब रहें जहाँ पर हमको वो उद्यान चाहिए।
साध्य और साधन में हमको समरसता संधान चाहिए।।
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गुरुवार, 24 सितंबर 2015
"निर्दोषों की गर्दन पे, क्यों छुरा चलाया जाता है?" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बकरे की माँ कब तक, अपनी खैर मना पाएगी।
बेटों के संग-संग, उसकी भी कुर्बानी हो जाएगी।।
बकरों का बलिदान चढ़ाकर, ईद मनाई जाती है।
इन्सानों की करतूतों पर, लाज सभी को आती है।।
यश-गौरव पाना है तो, कुछ अपनी भी कुर्बानी दो।
प्राणों को परवान चढ़ा, राहे-हक़ में बलिदानी हो।
निर्दोषों की गर्दन पे, क्यों छुरा चलाया जाता है?
आह हमारी लेकर, क्यों त्यौहार मनाया जाता है??
हिंसा करना किसी धर्म में, ऩहीं सिखाया जाता है।
मोह और माया को तजना, त्याग बताया जाता है।।
तुम अमृत को पियो भले, औरों को तो जल पीने दो।
खुद भी जियो शान से, लेकिन औरों को भी जीने दो।। |
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