शोलों के ऊपर अभी, चढ़ी हुई है राख।
भारत का कश्मीर है, भारत का लद्दाख।।
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भूल गये इतिहास को, याद नहीं भूगोल।
बिल्ले भी अब शेर की, रहे बोलियाँ बोल।।
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नाम भले ही पाक हो, मनसूबे नापाक।
कुटिल चाल से हो गया, वाकिफ आज बराक।।
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छलनी को दिखते नहीं, खूद अपने सूराख।।
सिखा रही वो सूप को, आज अदब-अखलाख।।
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जिस शाखा पर घोंसला, काट रहा वो डाल।
कौन बचायेगा उसे, जिसके सिर पर काल।।
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मूरख जब कोशिश करे, बनने की चालाक।
अपने घर की आग से, हो जाता वो ख़ाक।।
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चौमासा मत समझना, जेठ और बैसाख।
चिंगारी मत फेंकना, ओ जालिम-गुस्ताख।।
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बुधवार, 31 अगस्त 2016
दोहे "ओ जालिम-गुस्ताख" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मंगलवार, 30 अगस्त 2016
बालगीत-गिलहरी "सबके मन को भाती हो" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बैठ मजे से मेरी छत पर,
दाना-दुनका खाती हो!
उछल-कूद करती रहती हो,
सबके मन को भाती हो!!
तुमको पास बुलाने को,
मैं मूँगफली दिखलाता हूँ,
कट्टो-कट्टो कहकर तुमको,
जब आवाज लगाता हूँ,
कुट-कुट करती हुई तभी तुम,
जल्दी से आ जाती हो!
उछल-कूद करती रहती हो,
सबके मन को भाती हो!!
नाम गिलहरी, बहुत छरहरी,
आँखों में चंचलता है,
अंग मर्मरी, रंग सुनहरी,
मन में भरी चपलता है,
हाथों में सामग्री लेकर,
बड़े चाव से खाती हो!
उछल-कूद करती रहती हो,
सबके मन को भाती हो!!
पेड़ों की कोटर में बैठी
धूप गुनगुनी सेंक रही हो,
कुछ अपनी ही धुन में ऐंठी
टुकर-टुकरकर देख रही हो,
भागो-दौड़ो आलस छोड़ो,
सीख हमें सिखलाती हो!
उछल-कूद करती रहती हो,
सबके मन को भाती हो!!
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सोमवार, 29 अगस्त 2016
बालगीत "जोकर" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जो काम नही कर पायें दूसरे,
वो जोकर कर जाये।
सरकस मे जोकर ही,
दर्शक-गण को खूब रिझाये।
नाक नुकीली, चड्ढी ढीली,
लम्बी टोपी पहने,
उछल-कूद कर जोकर राजा,
सबको खूब हँसाये।
चाँटा मारा साथी को,
खुद रोता जोर-शोर से,
हाव-भाव से, शैतानी से,
सबका मन भरमाये।
लम्बा जोकर तो सीधा है,
बौना बड़ा चतुर है,
उल्टी-सीधी हरकत करके,
बच्चों को ललचाये।
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शनिवार, 27 अगस्त 2016
गीत "बचपन के दिन याद बहुत आते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
घर-आँगन वो बाग सलोने, याद बहुत आते हैं
बचपन के सब खेल-खिलौने, याद बहुत आते हैं
जब हम गर्मी में की छुट्टी में, रोज नुमाइश जाते थे
इस मेले को दूर-दूर से, लोग देखने आते थे
सर्कस की वो हँसी-ठिठोली, भूल नहीं पाये अब तक
जादू-टोने, जोकर-बौने, याद बहुत आते हैं
बचपन के सब खेल-खिलौने, याद बहुत आते हैं
शादी हो या छठी-जसूठन, मिलकर सभी मनाते थे
आस-पास के लोग प्रेम से, दावत खाने आते थे
अब कितना बदलाव हो गया, अपने रस्म-रिवाजो में
दावत के वो पत्तल-दोने याद बहुत आते हैं
बचपन के सब खेल-खिलौने, याद बहुत आते हैं
कभी-कभी हम जंगल से भी, सूखी लकड़ी लाते थे
उछल-कूद कर वन के प्राणी, निज करतब दिखलाते थे
वानर-हिरन-मोर की बोली, गूँज रही अब तक मन में
जंगल के निश्छल मृग-छौने याद बहुत आते हैं
बचपन के सब खेल-खिलौने, याद बहुत आते हैं
लुका-छिपी और आँख-मिचौली, मन को बहुत लुभाते थे
कुश्ती और कबड्डी में, सब दाँव-पेंच दिखलाते थे
होले भून-भून कर खाते, खेत और खलिहानों में
घर-आँगन के कोने-कोने याद बहुत आते हैं
बचपन के सब खेल-खिलौने, याद बहुत आते हैं
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"माता का आराधन" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
अन्तस् के कुछ अनुभावों से,
करता
हूँ माँ का अभिनन्दन।
शब्दों
के अक्षत्-सुमनों से,
करता
हूँ मैं माँ का वन्दन।।
मैं
क्या जानूँ लिखना-पढ़ना,
नहीं
जानता रचना गढ़ना,
तुम
हो भाव जगाने वाली,
नये
बिम्ब उपजाने वाली,
मेरे
वीराने उपवन में
आ
जाओ माँ बनकर चन्दन।
शब्दों
के अक्षत्-सुमनों से,
करता हूँ मैं माँ का वन्दन।।
कितना
पावन माँ का नाता,
तुम
वाणी हो मैं उदगाता,
सुर
भी तुम हो, तान तुम्हीं हो,
गीत
तुम्हीं हो, गान तुम्हीं हो,
वीणा
की झंकार सुना दो,
तुम्हीं
साधना, तुम ही साधन।
शब्दों
के अक्षत्-सुमनों से,
करता हूँ मैं माँ का वन्दन।।
मुझको
अपना कमल बना लो,
सेवक
को माता अपना लो,
मेरी
झोली बिल्कुल खाली,
दूर
करो मेरी कंगाली,
ज्ञान
सिन्धु का कणभर दे दो,
करता
हूँ माता आराधन।
शब्दों
के अक्षत्-सुमनों से,
करता हूँ मैं माँ का वन्दन।।
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शुक्रवार, 26 अगस्त 2016
गीत "कहाँ खो गई मीठी-मीठी इन्सानों की बोली" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
किसने नदियों की धारा में विष की बूटी घोली।।
कहाँ गयीं मधुरस में भीगी निश्छल वो मुस्कानें,
कहाँ गये वो देशप्रेम से सिंचित मधुर तराने,
किसकी कारा में बन्दी है सोनचिरैया भोली।
किसने नदियों की धारा में विष की बूटी घोली।।
लुप्त कहाँ हो गया वेद की श्रुतियों का उद्-गाता,
कहाँ खो गया गुरू-शिष्य का प्यारा-पावन नाता,
ढोंगी-भगत लिए फिरते क्यों चिमटा-डण्डा-झोली।
किसने नदियों की धारा में विष की बूटी घोली।।
मक्कारों को दूध-मलाई मिलता घेवर-फेना,
भूखे मरते हैं सन्यासी, मिलता नहीं चबेना,
सत्याग्रह पर बरसाई जाती क्यों लाठी-गोली।
किसने नदियों की धारा में विष की बूटी घोली।।
लोकतन्त्र में राजतन्त्र की क्यों फैली है छाया,
पाँच साल में जननायक ने कैसे द्रव्य कमाया,
धरती की बेटी की क्यों है फटी घाघरा-चोली।
किसने नदियों की धारा में विष की बूटी घोली।।
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गुरुवार, 25 अगस्त 2016
आठ दोहे "श्री कृष्ण जन्माष्टमी" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
कारा में गोपाल ने, लिया आज अवतार।
धरा-गगन में हो रही, उसकी जय-जयकार।।
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बादल नभ में छा रहे, बरस रहा है नीर।
हुआ देवकी-नन्द का, मन तब बहुत अधीर।।
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बन्दीघर में कंस की, पहरे थे संगीन।
खिसक रही वसुदेव के, पैरो तले जमीन।।
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बालकृष्ण ने जब रची, लीला स्वयं विराट।
प्रहरी सारे सो गये, सब खुल गये कपाट।।
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जब-जब अत्याचार से, लोग हुए लाचार।
तब-तब लेते धरा पर, महापुरुष अवतार।।
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जग-तप, पूजा-पाठ सब, हुए अकारथ आज।
सीधी-सच्ची राह से, भटका हुआ समाज।।
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बढ़ते पापाचार से, हुए सभी बेहाल।
कलयुग तुम्हें पुकारता, आ जाओ गोपाल।।
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जग के माया जाल में, जकड़े सारे लोग।
भोगवाद के दैत्य को, कौन सिखाये योग।।
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बुधवार, 24 अगस्त 2016
दोहे "आ जाओ गोपाल" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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