ये गद्दार मेरा वतन बेच देंगे
ये गुस्साल ऐसे कफन बेच देंगे
बसेरा है सदियों से शाखों पे जिसकी
ये वो शाख वाला चमन बेच देंगे
सदाकत से इनको बिठाया जहाँ पर
ये वो देश की अंजुमन बेच देंगे
लिबासों में मीनों के मोटे मगर हैं,
समन्दर की ये मौज-ए-जन बेच देंगे
सफीना टिका आब-ए-दरिया पे जिसकी
ये दरिया-ए गंग-औ-जमुन बेच देंगे
जो कोह और सहरा बने सन्तरी हैं
ये उनके दिलों का अमन बेच देंगे
जो उस्तादी अहद-ए-कुहन हिन्द का है
वतन का ये नक्श-ए-कुहन बेच देंगे
लगा हैं इन्हें रोग दौलत का ऐसा
बहन-बेटियों के ये तन बेच देंगे
ये काँटे हैं गोदी में गुल पालते हैं
लुटेरों को ये गुल-बदन बेच देंगे
अगर इनके वश में हो वारिस जहाँ का
ये उसके हुनर और फन बेच देंगे
जुलम-जोर शायर पे हो गरचे इनका
ये उसके भी शेर-औ-सुखन बेच देंगे
‘मयंक’ दाग
दामन में इनके बहुत हैं
ये अपने ही परिजन-स्वजन बेच देंगे
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शनिवार, 25 फ़रवरी 2017
ग़ज़ल "1975 में रची गयी मेरी एक पेशकश" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुन्दर गजल।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर.
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