निहित ज्ञान का पुंज है, गीता में श्रीमान।
पढ़ना इसको ध्यान से, इसमें है विज्ञान।।
जनता की है दुर्दशा, जन-जीवन बेहाल।
कूड़ा-कर्कट बीनते, भारत माँ के लाल।।
मामा शकुनि हो गये, बिगड़ गये हैं ढंग।
पक्षपात को देखकर, हुए भानजे दंग।।
देते हैं सन्ताप को, नीच घरों के लोग।
इसीलिए तो मुकदमें, लोग रहे हैं भोग।।
चना-चबेना भी नहीं, महँगाई की मार।
अब तो इस सरकार से, गया आदमी हार।।
आड़ी-तिरछी हाथ में, होतीं बहुत लकीर।
कोई है राजा यहाँ, कोई रंक-फकीर।।
सुख देती है सभी को, जल की नेह फुहार।
वासन्ती परिवेश में, कुदरत का उपहार।।
पाषाणों की चोट से, शीशा जाता टूट।
मनुज कभी झुकता नहीं, पीकर गम के घूँट।।
हर युग में होती रही, अभिमन्यू की मौत।
खुली चुनौती दे रहा, चन्दा को खद्योत।।
शिकवा और शिकायतें, जीवन के हैं साथ।
बुरे वक्त में दोस्त को, आजमाइए तात।।
हँसकर जीवन को जियो, रहना नहीं उदास।
नीरसता को त्याग कर, करो हास-परिहास।।
प्रणय जगाता है सदा, तन-मन में उदगार।
प्रेम हमेशा ही रहा, जीवन का आधार।।
नौनिहाल को सीख दें, सुधरेगा संसार।
कहने से पहले जरा, मन में करो विचार।।
चिपकी-चिपकी पेंट से, नंगी देह दिखाय।
अच्छा-खासा आदमी, नंगा सा बन जाय।।
नंगापन फैशन बना, इससे रहना दूर।
पूरब वाले क्यों हुए, फैशन में मजबूर।।
बिगड़ गया है आज तो, दुनिया का परिधान।
मानवता का हो रहा, पग-पग पर अपमान।।
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बुधवार, 15 फ़रवरी 2017
विविध दोहावली "भारत माँ के लाल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 16-02-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2594 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
bahut sundar dohe waah
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