करते-करते भजन, स्वार्थ छलने लगे।
करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।। झूमती घाटियों में, हवा बे-रहम, घूमती वादियों में, हया बे-शरम, शीत में है तपन, हिम पिघलने लगे। करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।। उम्र भर जख्म पर जख्म खाते रहे, फूल गुलशन में हरदम खिलाते रहे, गुल ने ओढ़ी चुभन, घाव पलने लगे। करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।। हो रहा हर जगह, धन से धन का मिलन, रो रहा हर जगह, भाई-चारा अमन, नाम है आचमन, जाम ढलने लगे। करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।। |
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बुधवार, 16 अगस्त 2017
गीत "स्वार्थ छलने लगे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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