करती धन की लालसा, जग को
मटियामेट।
दौलत से भरता नहीं, कभी किसी का पेट।।
ज्ञान बाँटने के लिए, लिखते लोग निबन्ध।
लेकिन सबके हैं यहाँ, धन से ही सम्बन्ध।।
जो होते धनहीन हैं, उनको मिलता चैन।
जब से धन आने लगा, तब से ही बेचैन।।
क्षमा-सरलता-धैर्य का, मन में नहीं निवेश।
धन की गरमी ला रही, मानस में आवेश।।
अपना भारत चाहता, नहीं किसी से बैर।
यह है सन्त कबीर सा, माँगे सबकी खैर।।
चैन-अमन होते सदा, जीवन के पर्याय।
उग्रवाद फैले नहीं, ऐसे करो उपाय।।
चलते सत्तर साल में, यौवन जैसे पाँव।
बूढ़ा बरगद दे रहा, सबको अपनी छाँव।।
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शुक्रवार, 18 अगस्त 2017
दोहे "माँगे सबकी खैर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सुन्दर दोहे।
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