बात-बात में निकलते, साला-साली शब्द।
देवनागरी हो रही, देख-देख निःशब्द।।
अगर मनुज के
हृदय का, मर जाये शैतान।,
फिर से जीवित धरा पर, हो जाये इंसान।।
कमी नहीं
कुछ देश में, भरे हुए
गोदाम।
खास मुनाफा खा रहे, परेशान हैं आम।।
बढ़ते
भ्रष्टाचार को, देगा कौन
लगाम।
जनसेवक को चाहिए, काजू औ’ बादाम।।
आज पुरानी नीँव के, खिसक रहे आधार।
नवयुग की इस होड़ में, बिगड़ गये आचार।।
नियमन आवागमन
का, किसी और के हाथ।
जाना तो तय हो
गया, आने के ही साथ।।
प्यार और नफरत
यहाँ, जीवन के हैं खेल।
एक बढ़ाता
द्वेष को, एक कराता मेल।।
|
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गुरुवार, 31 मई 2018
दोहे "साला-साली शब्द" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बुधवार, 30 मई 2018
दोहे "तजना नहीं उमंग" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
स्वार्थ भरे इस जगत में, जब तक है परमार्थ।
तब-तब जग में जन्म ले, वीर धनुर्धर पार्थ।।
उसको मिलती सफलता, जो करता पुरुषार्थ।
लक्ष्य भेदने के लिए, बनना पड़ता पार्थ।।
रखो खेल की भावना, पास-फेल के संग।
चाहे जो परिणाम हो, तजना नहीं उमंग।।
सुन्दरता को देखकर, मत होना मदहोस।
पत्तों पर तो देर तक, नहीं ठहरती ओस।।
लगने लगी समाज में, अंग्रेजी की होड़।
हिन्दी की शालाओं को, लोग रहे अब छोड़।।
तन-मन को गद-गद करे, अनुशंसा का भाव।
तारीफों के शब्द से, जल्दी भरते घाव।।
अब कैसे नव सृजन हो, मनवा है हैरान।
अन्धकूप में पैंठ कर, लोग खोजते ज्ञान।।
वेदों के सन्देश पर, नतमस्तक हैं लोग।
जीवन के हर क्षेत्र में, मन्त्रों का उपयोग।।
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सोमवार, 28 मई 2018
गीत "किन्तु शेष आस हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
राख में दबी हुई, हमारे दिल की आग है।।
गीत भी डरे हुए, ताल-लय उदास हैं.
पात भी झरे हुए, किन्तु शेष आस हैं,
दो नयन में पल रहा, नग़मग़ी सा ख्वाब है।
राख में दबी हुई, हमारे दिल की आग है।।
ज़िन्दगी है इक सफर, पथ नहीं सरल यहाँ,
मंजिलों को खोजता, पथिक यहाँ-कभी वहाँ,
रंग भिन्न-भिन्न हैं, किन्तु नहीं फाग है।
राख में दबी हुई, हमारे दिल की आग है।।
बाट जोहती रहीं, डोलियाँ सजी हुई,
हाथ की हथेलियों में, मेंहदी रची हुई,
हैं सिंगार साथ में, पर नहीं सुहाग है।
राख में दबी हुई, हमारे दिल की आग है।।
इस अँधेरी रात में, जुगनुओं की भीड़ है,
अजनबी तलाशता, सिर्फ एक नीड़ है,
रौशनी के वास्ते, जल रहा च़िराग है।
राख में दबी हुई, हमारे दिल की आग है।।
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दोहे "सहते लू की मार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सबके मन को मोहते, अमलतास के फूल।
शीतलता को बाँटते, मौसम के अनुकूल।१।
सूरज झुलसाता बदन, बढ़ा धरा का ताप।
अमलतास तुम पथिक का, हर लेते सन्ताप।२।
मौन तपस्वी से खड़े, सहते लू की मार।
अमलतास के पेड़ से, बहती सुखद बयार।३।
पीले झूमर पहनकर, तन को लिया सँवार।
किसे रिझाने के लिए, करते हो सिंगार।४।
विपदाओं को झेलना, तजना मत मुस्कान।
अमलतास से सीख लो, जीवन का यह ज्ञान।५।
गरमी से जब मन हुआ, राही का बेचैन।
छाया का छप्पर छवा, देते तुम सुख-चैन।६।
गरम थपेड़े मारती, जब गरमी की धूप।
अमलतास का तब हमें, अच्छा लगता “रूप”।७।
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रविवार, 27 मई 2018
दोहे "मोह सभी का भंग" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
अपने-अपने पेंच
हैं, अपने-अपने दाँव।
दल-दल में सबके
यहाँ, धँसे हुए हैं पाँव।।
बिना बुलाये आ रहे,
वोट माँगने लोग।
दुखती रग को
पकड़कर, बढ़ा रहे हैं रोग।।
चार साल से पूर्व
जो, दिखते थे सम्पन्न।
महँगाई कर दिया,
उनको आज विपन्न।।
गंगू भाई बन गया,
जब से राजा भोज।
सुरसा के मुख सी
बढ़े, महँगाई हर रोज।।
तानाशाही का हुआ,
जबसे उनका ढंग।
धीरे-धीरे हो
रहा, मोह सभी का भंग।।
पढ़े-लिखो को दे
रहा, राजा आज सुझाव।
तलो पकौड़े रोड
पर, बेचो भाजी-पाव।।
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निर्धन श्रमिक
किसान का, जो रखता था ध्यान।
कुनबेदारी से
हुआ, उस दल का अवसान।।
दल तो उमरदराज
है, नेता अनुभवहीन।
इसीलिए हर
क्षेत्र में, होती है तौहीन।।
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शनिवार, 26 मई 2018
दोहे "बदन जलाता घाम" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
वाक्शक्ति हमको मिली, ईश्वर से अनमोल।
सोच समझकर बात को, तोल-तोलकर बोल।।
कुछ लोगों के तंज की, करना मत परवाह।
आगे बढ़ते जाइए, मिल जायेगी राह।।
चिकनी-चुपड़ी बात से, होता जग अनुकूल।
खरी-खरी जो बोलता, उसके सब प्रतिकूल।।
खाली पड़ी जमीन पर, बने हुए हैं कक्ष।
दिखलाई देते नहीं, अब आँगन में वृक्ष।। हरा-भरा परिवेश ही, है सच्चा उपहार। पेड़ लगा कर भूमि का, करो आज शृंगार।।
दिखा नहीं है जेठ में, बदन जलाता घाम।
उमड़-घुमड़कर आ रहे, गरमी में घनश्याम।।
करें चाकरी देश में, सुभट महाविद्वान।
धनवानों की माँद में, बन्धक हैं गुणवान।।
परिवर्तन है ज़िन्दगी, आयेंगे बदलाव।
अनुभव के पश्चात ही, आता है ठहराव।।
चाँद चमकती है तभी, जब यौवन ढल जाय।
पीले पत्तों में नहीं, हरियाली आ पाय।।
कभी जुदाई है यहाँ, कभी यहाँ पर मेल।
हैं संयोग-वियोग का, प्यार अनोखा खेल।।
दोहों में मेरे नहीं, होता है लालित्य।
जो समाज को दे दिशा, वो ही है साहित्य।। |
शुक्रवार, 25 मई 2018
दोहे "जीवन का भावार्थ" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
दोहों में ही निहित है, जीवन का भावार्थ।
गरमी में अच्छे लगें, शीतल पेय पदार्थ।।
ज्यादा मीठे माल से, हो जाता मधुमेह।
कभी-कभी तो चाटिए, कुछ तीखा अवलेह।।
हमने दुनिया को दिया, कविताओं का ढंग।
किन्तु विदेशों का चढ़ा, आज हमीं पर रंग।। राम और रहमान को, भुना रहे हैं लोग। जनता दुष्परिणाम को, आज रही है भोग।।
वर्तमान है लिख रहा, अब अपना इतिहास।
आम आज भी आम है, खास आज भी खास।।
बढ़ जाता है हौसला, जब हो जाती जीत।
मन में अगर उमंग हो, बज उठता संगीत। अगर इरादे नेक हों, होती नहीं थकान। सादा भोजन भी लगे, मानो हो पकवान।।
जिनके मिलने से मिले, मन को खुशी अपार।
ऐसे सज्जनवृन्द तो, मिलने अब दुश्वार।।
लोगों ने देखा जहाँ, बेलन-तवा-परात।
अपनी चादर कोबिछा, वहीं गुजारी रात।।
लोगों को जब शहद की, मिल जाती है गन्ध।
बिना किसी अनुबन्ध के, हो जाते सम्बन्ध।।
अच्छे कामों में सदा, आते हैं अवरोध।
चूहें-छिपकलियाँ करें, रवि का बहुत विरोध।। |
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