काशी में उलटी
बहे, गंगा जी की धार।।
पूरी ताकत को लगा,
चला रहे पतवार।
लेकिन फिर भी नाव
तो, नहीं लग रही पार।।
एक नीड़ में रह
रहे, बोल-चाल है बन्द।
भाई-भाई की उन्हें,
सूरत नहीं पसन्द।।
पुत्र पिता को
समझता, बैरी नम्बर एक।
मतलब तक ही हैं
यहाँ, सब परिवारी नेक।।
खून पिलाकर पालता,
जीवनभर है बाप।
लेकिन बदले में
उसे, मिलता है सन्ताप।।
यौवन के अभिमान
में, बहुएँ-बेटे चूर।
माता की चलती
नहीं, वृद्ध पिता मजबूर।।
अवसर कभी न चूकते,
करने को अपमान।
मात-पिता का चुकाते,
वो ऐसे अहसान।।
जिनके लिए कृपण
बने, किया महल तैयार।
अपशब्दों की वो
करें, रोज-रोज बौछार।।
कहीं किसी भी हाट
में, बिकती नहीं तमीज।
वैसा ही पौधा उगे,
जैसा बोते बीज।।
पूर्व जन्म में
किसी का, खाया था जो कर्ज।
उसको सूद समेत अब,
लौटाना है फर्ज।।
जो रखता मन में नही, किसी तरह का मैल। वो खटता है रात-दिन, ज्यों कोल्हू का बैल।। |
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मंगलवार, 22 मई 2018
दोहे "वृद्ध पिता मजबूर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (23-05-2018) को "वृद्ध पिता मजबूर" (चर्चा अंक-2979) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
सुन्दर दोहे
जवाब देंहटाएंआज के हालातों पर सटीक लिखा है आपने
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएं