सुमन ढालता स्वयं को, काँटों के अनुरूप।
नागफनी का भी हमें, सुन्दर लगता रूप।
सियासती दरवेश अब, नहीं रहे अनुकूल।
मजबूरी में भा रहे, नागफनी के फूल।।
फूलों के बदले मिलें, उपवन में जब शूल।
ऐसा लगता गन्ध को, भ्रमर गये हैं भूल।।
देश-काल-परिवेश के, बदल गये हैं अर्थ।
उनको सारी छूट हैं, जो हैं आज समर्थ।।
कैसे रक्खें सन्तुलन, थमता नहीं उबाल।
पापी मन इंसान का, करता बहुत बबाल।।
अब मौसम के साथ में, बदल गया परिवेश।
काँटे भी देने लगे, गुलशन में उपदेश।।
नागफनी के चमन में, काँटों की चौपाल।
वासन्ती परिवेश में, जीवन है बदहाल।।
निखरा-निखरा व्योम है, खिली हुई है धूप।
निखर गया मधुमास में, नागफनी का रूप।।
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शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2020
दोहे "नागफनी का रूप" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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नागफनी के चमन में, काँटों की चौपाल।
जवाब देंहटाएंवासन्ती परिवेश में, जीवन है बदहाल।।
बहुत ही सुंदर सृजन सर ,सादर नमन
बहुत ही सुंदर सृजन सर ,सादर नमन
बहुत सुंदर और आकर्षक सृजन आदरणीय।
जवाब देंहटाएंसियासती दरवेश अब, नहीं रहे अनुकूल।
जवाब देंहटाएंमजबूरी में भा रहे, नागफनी के फूल।।
सादर प्रणाम।