स्वर सँवरता नहीं, आचमन के बिना।
पग ठहरता नहीं, आगमन के बिना।।
देश-दुनिया की चिन्ता, किसी को नहीं,
मन सुधरता नहीं, अंजुमन के बिना।
मोह माया तो, दुनिया का दस्तूर है,
सुख पसरता नहीं, संगमन के बिना।
खोखली देह में, प्राण कैसे पले,
बल निखरता नहीं, संयमन के बिना।
क्या करेगा यहाँ, अब अकेला चना,
दल उभरता नहीं, संगठन के बिना।
“रूप” कैसे खिले, धूप कैसे मिले?
रवि ठहरता नहीं है, गगन के बिना।
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शुक्रवार, 26 मई 2017
गीतिका "स्वर सँवरता नहीं, आचमन के बिना" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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देश-दुनिया की चिन्ता, किसी को नहीं,
जवाब देंहटाएंमन सुधरता नहीं, अंजुमन के बिना।
“रूप” कैसे खिले, धूप कैसे मिले?
रवि ठहरता नहीं है, गगन के बिना
बहुत सुन्दर गीत।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं