आदिकाल से चल रही, यही जगत में रीत।
वर्तमान ही बाद में, होता सदा अतीत।।
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जग में आवागमन का, चलता रहता चक्र।
अन्तरिक्ष में ग्रहों की, गति होती है वक्र।।
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जिनके पुण्य-प्रताप से, रिद्धि-सिद्धि का वास।
उनका कभी न कीजिए, जीवन में उपहास।।
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जीवित माता-पिता को, मत देना सन्ताप।
नित्य नियम से कीजिए, इनका वन्दन-जाप।।
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बुरा कभी मत सोचिए, करना मत दुष्कर्म।
सेवा और सहायता, जीवन के हैं मर्म।।
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"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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गुरुवार, 30 नवंबर 2017
दोहे "करना मत दुष्कर्म" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बुधवार, 29 नवंबर 2017
दोहे "चरैवेति की सीख" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
दुनियादारी में सदा, रखना संग विवेक।
उसको करते याद सब, जो होता है नेक।।
फैले हैं संसार में, यूँ तो पन्थ अनेक।
सबके दिल में जो बसे, वो नारायण एक।।
रूप-रंग सबका अलग, होता भिन्न विवेक।
उर मन्दिर में ही करो, ईश्वर का अभिषेक।।
कविता-कानन में उगे, अब तो छन्द अनेक।
अलग सभी की मापनी, अलग सभी की टेक।।
एक मुखी रुद्राक्ष तो, मिलना है आसान।
लेकिन दुर्लभ जगत में, एक मुखी इंसान।।
सात सुरों से ही बने, दुनिया में संगीत।
लेकिन आवागमन की, एक सभी की रीत।।
सरिताएँ देतीं हमें, चरैवेति की सीख।
सागर भी जल के लिए, उनसे माँगे भीख।।
सहज-सरल पगडण्डियाँ, खोज रहा हर एक।
पन्थ भले ही हों अलग, लेकिन मंजिल एक।।
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मंगलवार, 28 नवंबर 2017
दोहे "कहलाना प्रणवीर" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मतलब
में करना नहीं, लोगों की मनुहार।।
अपने
लेखन में करो, अपने आप सुधार।
रँगे
पश्चिमी रंग में, जब से अपने गीत।
तब से अपने देश का, बिगड़ गया संगीत।।
वचनबद्ध
रहना सदा, कहलाना प्रणवीर।
वचन
निभाने के लिए, हमको मिला शरीर।।
कहना
सच्ची बात को, मत होना भयभीत।
जो
दे सही सुझाव को, वही कहाता मीत।।
कहलाना
मत बेवफा, कुटिल न चलना चाल।
कभी
वफा की राह में, नहीं बिछाना जाल।।
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सोमवार, 27 नवंबर 2017
दोहे "देखो कितना मुक्त है, आभासी संसार" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बिना किसी सम्बन्ध के, भावों का संचार।
अनुभव करते हृदय से, आभासी संसार।।
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होता अन्तर्जाल पर, दूर-दूर से प्यार।
अच्छा लगता है बहुत, आभासी संसार।।
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बिना किसी हथियार के, करते हैं सब वार।
देखो कितना मुक्त है, आभासी संसार।।
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बिना किसी आकार के, लगता जो साकार।
सपनों में सबके बसे, आभासी संसार।।
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बिन माँगे मिलते जहाँ, बार-बार उपहार।
अपनापन है बाँटता, आभासी संसार।।
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साझा करते हैं जहाँ, अपने सभी विचार।
टिप्पणियाँ स्वीकारता, आभासी संसार।।
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लिए अधूरे ज्ञान को, भरते सब हुंकार।
भरा हुआ है दम्भ से, आभासी संसार।।
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कवियों के तो नाम की, लम्बी लगी कतार।
छन्दों को है लीलता, आभासी संसार।।
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माली ही खुद लूटते, अब तो बाग-बहार।
आपाधापी का हुआ, आभासी संसार।।
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सत्य बताने के लिए, “रूप” हुआ लाचार।
नौसिखियों के सामने, सर्जक हैं बेकार।।
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रविवार, 26 नवंबर 2017
दोहे "उल्लू जी का भूत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
उल्लू की होती जिन्हें, कदम-कदम पर चाह।।
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उल्लू का होता जहाँ, शासन पर अधिकार।
समझो वहाँ समाज का, होगा बण्टाधार।।
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खोज रहें हों घूस के, उल्लू जहाँ उपाय।
न्यायालय में फिर कहाँ, होगा पूरा न्याय।।
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दिनभर जो सोता रहे, जागे पूरी रात।
वो मानव की खोल में, उल्लू की है जात।।
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जगह-जगह फैला हुआ, उल्लू का आतंक।
कैसा भी तालाब हो, रहता ही है पंक।।
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सत्ता के मद-मोह में, बनते सभी उलूक।
इसीलिए होता नहीं, अच्छा कभी सुलूक।।
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बैठा जिनके शीश पर, उल्लू जी का भूत।
आ जाता है खुद वहाँ, लालच बनकर दूत।।
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शनिवार, 25 नवंबर 2017
दोहे "आम गया है हार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आम-खास के बीच में, लेकिन भरी खटास।।
बची हुई है आम में, जब तक यहाँ मिठास।
तब तक दोनों में रहे, नातेदारी खास।।
आम-खास के
खेल में, आम गया है हार।
आम खास की
कर रहा, सदियों से मनुहार।।
चूस-चूसकर आम को, बन बैठे जो खास।
वो ही करते आम का, महफिल में उपहास।।
आम पिलपिले हो भले, देते हैं आनन्द।
उन्हें चूसने में मिले, वाणी को मकरन्द।।
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शुक्रवार, 24 नवंबर 2017
दोहे "जीवन है बेहाल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
घटते जाते धरा से, बरगद-पीपल-नीम।
इसीलिए तो आ रहे, घर में रोज हकीम।।
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रक्षक पर्यावरण के, होते पौधे-पेड़।
लेकिन मानव ने दिये, जड़ से पेड़ उखेड़।।
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पेड़ काटता जा रहा, धरती का इंसान।
प्राणवायु कैसे मिले, सोच अरे नादान।।
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दौलत के मद में मनुज, करता तोड़-मरोड़।
हरितक्रान्ति संसार में, आज रही दम तोड़।।
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कंकरीट को बो रहा, खेतों में इंसान।
कसरत करने के लिए, बचे नहीं मैदान।।
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आबादी तो बढ़ रही, घटते जंगल-खेत।
नदियों में पानी बिना, उड़ता केवल रेत।।
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दोहन हुआ पहाड़ का, गरज रहा भूचाल।
इंसानी करतूत से, जीवन है बेहाल।।
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बुधवार, 22 नवंबर 2017
दोहे "रवि लगता नाराज" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
अच्छे
दिन की चाह में, जनता है बदहाल।
महँगे
होते जा रहे, आटा चावल-दाल।
बाजारों
में एक से, कभी न रहते भाव।
आता
कभी उतार तो, आता कभी चढ़ाव।।
रहती
एक समान कब, नक्षत्रों की चाल।
कभी
रुलाती प्याज तो, कभी टमाटर लाल।
सरकंडे
के नीड़ में, बंजारों का वास।
निर्धनता
का हो रहा, पग-पग पर उपहास।।
मन
में तो रावण छिपा, जिह्वा पर श्रीराम।
फिर
कैसे होगा भला, रामलला का काम।
मलयानिल
से आ रही, शीतल सुखद बयार।
पानी
पर हिम जम गया, नौका है लाचार।।
धरा-गगन
पर आजकल, कुहरे का है राज।
मैदानी
भूभाग से, रवि लगता नाराज।।
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मंगलवार, 21 नवंबर 2017
दोहे "मत होना मदहोश" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जीवन के अवसान का, कैसे हो अनुमान।
कुदरत के कानून को,
भूल गया इंसान।।
जितनी बढ़ती है उमर, उतनी
बढ़ती प्यास।
भँवरा जीवनभर नहीं, ले
पाता सन्यास।।
जिनके लेखन में रहें, कुण्ठा
भरे विचार।
फिर उनके सपने भला, कैसे
हों साकार।।
मेहनत से जो कुछ मिले, उसमें
कर सन्तोष।
मिन्नत करने से नहीं, भरता
खाली कोष।।
(मेहनत से जो कुछ मिले...14 मात्राएँ
हैं..अपवाद स्वरूप)
माना भरा दिमाग में, शब्दों
का है कोश।
लेकिन अपने ज्ञान पर, मत
होना मदहोश।।
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सोमवार, 20 नवंबर 2017
दोहे "नहीं रहा लालित्य" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
जीवन के दो चक्र हैं, सुख-दुख जिनके नाम।
दोनों ही हालात में, धीरज से लो काम।।
सरल सुभाव अगर नहीं, धर्म-कर्म सब व्यर्थ।
वक्र स्वभाव मनुष्य का, करता सदा अनर्थ।।
जीवन प्रहसन के सभी, इस दुनिया में पात्र।
सबका जीवन है यहाँ, चार दिनों का मात्र।।
छन्द-शास्त्र गायब हुए, मुक्त हुआ साहित्य।
गीत और संगीत में, नहीं रहा लालित्य।।
रत्तीभर चक्खा नहीं, लिया नहीं आनन्द।
छत्ते में डाका पड़ा, लुटा सभी मकरन्द।।
जिनकों फूलों ने दिये, घाव हजारों बार।
काँटों पर उनको भला, कैसे हो इतबार।।
हरे-भरे हों पेड़ सब, छाया दें घनघोर।
उपवन में हँसते सुमन, सबको करें विभोर।।
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