नदी शारदा में किया, उत्सव
का इसनान।
फिर खिचड़ी खाकर किया, मेले
को प्रस्थान।।
झनकइया वन में लगा, मेला
बहुत विशाल।
वियाबान के बीच में, बिकता
सस्ता माल।।
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यहाँ सिँघाड़े बिक रहे, गुब्बारों
की धूम।
मस्ती में-उल्लास में, लोग
रहे हैं घूम।।
![]()
आदिवासियों ने यहाँ, डेरा
दिया जमाय।
जंगल में मंगल किया, पिकनिक
रहे मनाय।।
![]()
बहुत करीने से सजा, चाऊमिन
का नीड़।
जिसको खाने के लिए, लगी
बहुत है भीड़।।
![]()
फल के ठेले हैं यहाँ, फूलों
की दूकान।
मनचाहा रँग छाँट लो, रंगों
की है खान।।
![]()
गरमा-गरम जलेबियाँ, और
पकौड़ी खाय।
मेला घूमों शान से, हज़म
सभी हो जाय।।
![]()
सब्जी बिकती धान से, दाम
नहीं है पास।
बिन पैसे के हो रहा, मेला
आज उदास।।
![]()
ऊँचे झूले लगे हैं, भाँति-भाँति
के खेल।
सर्कस के इस खेल मे, भारी
धक्का-पेल।।
![]()
घर के दाने बिक रहे, बच्चों
का है साथ।
महँगाई की मार से, बिगड़
रहे हालात।।
![]()
आओ अब घर को चलें, घिर
आई है शाम।
जालजगत पर अब हमें, करना
है कुछ काम।।
|
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शनिवार, 4 नवंबर 2017
"सब्जी बिकती धान से, दाम नहीं है पास" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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झनकईया मेले का वासत्विक चित्र् प्रस्तुत किया हैं .
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