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जलद जल धाम ले आये।।
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तितली रानी कितनी सुन्दर।
भरा हुआ इसके पंखों में,
रंगों का है एक समन्दर।।
उपवन में मंडराती रहती,
फूलों का रस पी जाती है।
अपना मोहक रूप दिखाने,
यह मेरे घर भी आती है।।
भोली-भाली और सलोनी,
यह जब लगती है सुस्ताने।
इसे देख कर एक छिपकली,
आ जाती है इसको खाने।।
आहट पाते ही यह उड़ कर,
बैठ गयी है चौखट के ऊपर।
मेरा मन भी ललचाया है,
मैं भी देखूँ इसको छूकर।।
इसके रंग-बिरंगे कपड़े,
होली की हैं याद दिलाते।
सजी धजी दुल्हन को पाकर,
बच्चे फूले नही समाते।।
मैं अपनी मम्मी-पापा के,
नयनों का हूँ नन्हा-तारा।
मुझको लाकर देते हैं वो,
रंग-बिरंगा सा गुब्बारा।।
मुझे कार में बैठाकर,
वो रोज घुमाने जाते हैं।
पापा जी मेरी खातिर,
कुछ नये खिलौने लाते हैं।।
मैं जब चलता ठुमक-ठुमक,
वो फूले नही समाते हैं।
जग के स्वप्न सलोने,
उनकी आँखों में छा जाते हैं।।
ममता की मूरत मम्मी-जी,
पापा-जी प्यारे-प्यारे।
मेरे दादा-दादी जी भी,
हैं सारे जग से न्यारे।।
सपनों में सबके ही,
सुख-संसार समाया रहता है।
हँसने-मुस्काने वाला,
परिवार समाया रहता है।।
मुझको पाकर सबने पाली हैं,
नूतन अभिलाषाएँ।
क्या मैं पूरा कर कर पाऊँगा,
उनकी सारी आशाएँ।।
मुझको दो वरदान प्रभू!
मैं सबका ऊँचा नाम करूँ।
मानवता के लिए जगत में,
अच्छे-अच्छे काम करूँ।।
(चित्र गूगल सर्च से साभार)
लम्बे काले बालों वाला।
खेल अनोखे दिखलाता है।
बच्चों के मन को भाता है।।
वानर है कितना शैतान।
मेरी पतंग बड़ी मतवाली।
मैं जब विद्यालय से आता,
खाना खा झट छत पर जाता।
बड़े चाव से पेंच लड़ाता।
पापा-मम्मी मुझे रोकते,
बात-बात पर मुझे टोकते।
लेकिन मैं था नही मानता,
इसका नही परिणाम जानता।
वही हुआ था, जिसका डर था,
अब मैं काँप रहा थर-थर था।
लेकिन मैं था ऐसा हीरो,
सब विषयों लाया जीरो।
अब नही खेलूँगा यह खेल,
कभी नही हूँगा मैं फेल।
आसमान में उड़ने वाली,
जो करती थी सैर निराली।
मैंने उसे फाड़ डाला है,
छत पर लगा दिया ताला है।
मित्रों! मेरी बात मान लो,
अपने मन में आज ठान लो।
पुस्तक लेकर ज्ञान बढ़ाओ।
थोड़ा-थोड़ा पतंग उड़ाओ।।
(चित्र गूगल खोज से साभार)
जिसने कभी नही पाया, ममता का गहरा सागर।
सूनी होगी चादर, सूखी सी होगी उसकी गागर।।
मधुवन में मधुमास नही, पतझड़ उसको मिलते होंगे।
उसके जीवन में खुशियों के, फूल कहाँ खिलते होंगे।।
ममता की जब छाँव नही, अमृत भी गरल सने होंगे।
आशाएँ सब सूनी होंगी, पथ सब विरल घने होंगे।।
कृष्ण-कन्हैया को द्वापर में, मिला यशोदा का आँचल।
कलयुग में क्या मिल पायेगा, ऐसी माता का आँचल।।
हे प्रभो! बालक दो तो उसको, माता की छाया देना।
माँ को पास बुलाते हो तो, शिशु को मत काया देना।।
इसमें ज्ञान भरा है सारा।
भइया इससे नेट चलाते,
नई-नई बातें बतलाते।
यह प्रश्नों का उत्तर देता,
पल भर में गणना कर लेता।
माउस, सी.पी.यू, मानीटर,
मिलकर बन जाता कम्प्यूटर।
जिससे भाषा को लिख पाते।
हमने नया खजाना पाया।
बड़ा अनोखा है यह टीचर,
सभी सीख लो अब कम्प्यूटर।
जो कमजोर वजीरे-आजम की, स्वर लहरी बोल रहे थे।
शासन स्वयं चलाने को, मुँह में रसगुल्ले घोल रहे थे।।
उनको भारत की जनता ने, सब औकात बता डाली है।
कितनों की संसद में जाने की, अभिलाष मिटा डाली है।।
मनसूबे सब धरे रह गये, सपने चकनाचूर हो गये।
आशा के विपरीत, मतों को पाने को मजबूर हो गये।।
फील-गुड्ड के नारे को तो, पहले ही ठुकरा डाला था।
अब भी नही निवाला खाया, जो चिकना-चुपड़ा डाला था।।
माया का लालच भी जन, गण, मन को, कोई रास न आया।
लालू-पासवान के जादू ने, कुछ भी नही असर दिखाया।।
जिसने जूता खाया, उसको हार, हार का हार मिला है।
पाँच साल तक घर रहने का, बदले में उपहार मिला है।।
लोकतन्त्र के महासमर में, असरदार सरदार हुआ है।
ई.वी.एम. के भवसागर में, फिर से बेड़ा पार हुआ है।।
जनता की उम्मीदों पर, अब इनको खरा उतरना होगा।
शिक्षित-बेकारों का दामन, रोजगार से भरना होगा।।
प्रेम-रोग में गम का होना,
सबका बस ये ही है रोना।
क्रम ऐसा ही चलता रहता,
जीवन यों ही ढलता रहता,
खारे आँसू का जल पीना,
हरदम सपनों में ही खोना।
प्रेम-रोग में गम का होना,
सबका बस ये ही है रोना।
होली हो या हो दीवाली,
पतझड़ हो या हो हरियाली,
घुट-घुट कर पड़ता है जीना,
भार कठिन है अपना ढोना।
प्रेम-रोग में गम का होना,
सबका बस ये ही है रोना।
कागा बोले कोयल बोले,
कड़ुआ बोले या रस घोले,
उनके बिन लगता सब सूना,
खाली है मन का हर कोना।
प्रेम-रोग में गम का होना,
सबका बस ये ही है रोना।
भूखी अँखिया प्यासी अँखिया,
चंचल शोख उदासी अँखिया,
अक्सर अक्स उभर आता है,
बनकर मीठा स्वप्न सलोना।
प्रेम-रोग में गम का होना,
सबका बस ये ही है रोना।
हिन्दू मन्दिर में हैं जाते।
देवताओं को शीश नवाते।।
ईसाई गिरजाघर जाते।
दीन-दलित को गले लगाते।।
अल्लाह का फरमान जहाँ है।
मुस्लिम का कुर-आन वहाँ है।।
जहाँ इमाम नमाज पढ़ाता।
मस्जिद उसे पुकारा जाता।।
सिक्खों को प्यारे गुरूद्वारे,
मत्था वहाँ टिकाते सारे।।
राहें सबकी अलग-अलग हैं।
पर सबके अरमान नेक है।
नाम अलग हैं, पन्थ भिन्न हैं।
पर जग में भगवान एक है।।
(सभी चित्र गूगल से साभार)
बस एक मुलाकात में, ही शेर गढ़ लिया।
आँखों में आँख डाल करके, प्यार पढ़ लिया।।
भावनाओं ने नयी भाषा निकाल ली,
कामनाओं ने भी दिलासा निकाल ली,
दुर्गम पहाड़ियों पे, तेरा यार चढ़ लिया।
आँखों में आँख डाल करके, प्यार पढ़ लिया।।
मैने गगन से एक आफताब पा लिया,
बदली से मैंने एक माहताब पा लिया,
रस्मो-रिवाज तोड़के, उस पार बढ़ लिया।
आँखों में आँख डाल करके, प्यार पढ़ लिया।।
दर्पण साथ नही देगा, क्यों नाहक मन भरमाते हो?
हुस्न-इश्क के झण्डे को, क्यों डण्डे बिन फहराते हो?
मौसम के काले कुहरे को, जीवन में मत छाने दो,
सुख-सपनों में कभी नही, इसको कुहराम मचाने दो,
धरती पर बसने वालो, क्यों आसमान तक जाते हो?
हुस्न-इश्क के झण्डे को, क्यों डण्डे बिन फहराते हो?
नाम मुहब्बत है जिसका, वो जीवन भर तड़पाती हैं,
खुश-नसीब को हर्षाती यह, बाकी को भरमाती है,
सुमन चुनों उपवन में से, क्यों काँटे चुन कर लातें हो?
हुस्न-इश्क के झण्डे को, क्यों डण्डे बिन फहराते हो?
मन को वश मे कर लो, देता सन्देशा है भव-सागर,
सलिल सुधा से भर जायेगी, प्रेम-प्रीत की ये गागर,
मंजिल पर जाना है तो, क्यों राहों से घबराते हो?
हुस्न-इश्क के झण्डे को, क्यों डण्डे बिन फहराते हो?
खट्टी-मीठी यादों से ,खाली मन को मत भरमाना,
मुरझाये उपवन को फिर से, हरा-भरा करते जाना,
अपनेपन की बात करो, क्यों बे-मतलब लहराते हो?
हुस्न-इश्क के झण्डे को, क्यों डण्डे बिन फहराते हो?
आज समय का, कुटिल - चक्र चल निकला है।
संस्कार का दुनिया भर में, दर्जा सबसे निचला है।।
नैतिकता के स्वर की लहरी मंद हो गयी।
इसीलिए नूतन पीढ़ी, स्वच्छन्द हो गयी।।
अपनी गल्ती को कोई स्वीकार नही करता है।
दोष स्वयं के, सदा दूसरों के माथे पर धरता है।।
सबके अपने नियम और सबका अन्दाज निराला है।
बिके हुए हर नेता के मुँह पर तो लटका ताला है।।
पत्रकार का मतलब था, निष्पक्ष और विद्वान-सुभट।
नये जमाने में इसकी, परिभाषाएँ सब गई पलट।।
नटवर लाल मीडिया पर, छा रहे बलात् बाहुबल से।
गाँव शहर का छँटा हुआ, अब जुड़ा हुआ है चैनल से।।
गन्दे नालों और नदियों की, बहती है अविरल धारा।
नहाने वाले पर निर्भर है, उसको क्या लगता प्यारा??
गम के दरिया से बाहर निकालो कदम,
राह खुशियों की आसान हो जायेगी।
रोने-धोने से होंगे न आँसू खतम,
उलझनें भारी पाषाण हो जायेगी।।
साँस को मत कुरेदो बहक जायेगी,
आग को मत कुरेदो चहक जायेगी,
भूल जाना जफा, याद करना वफा,
जिन्दगी एक वरदान हो जायेगी।
रोने-धोने से होंगे न आँसू खतम,
उलझनें भारी पाषाण हो जायेगी।।
फूल काँटों मे रहकर भी रोता नही,
दर्द सहता है, मुस्कान खोता नही,
बाँट लो प्यार और काट लो जिन्दगी,
सुख की घड़ियाँ मेहरबान हो जायेगी।
रोने-धोने से होंगे, न आँसू खतम,
उलझनें भारी पाषाण हो जायेगी।।
जिसने अमृत चखा, वो फकत देव है,
पी लिया जिसने विष, वो महादेव है,
दो कदम तुम चलो, दो कदम हम चलें,
एक दिन जान-पहचान हो जायेगी।
रोने-धोने से होंगे, न आँसू खतम,
उलझनें भारी पाषाण हो जायेगी।।
चाट पकौड़ी खूब उड़ाई,
देख चाट का ठेला।
जम करके खाया केला।
अब दोनों आपस में बोले,
अच्छा लगा बहुत मेला।
कौन थे? क्या थे? कहाँ हम जा रहे?
व्योम में घश्याम क्यों छाया हुआ?
भूल कर तम में पुरातन डगर को,
कण्टकों में फँस गये असहाय हो,
वास करते थे कभी यहाँ पर करोड़ो देवता,
देवताओं के नगर का नाम आर्यावर्त था,
काल बदला, देव से मानव कहाये,
ठीक था, कुछ भी नही अवसाद था,
किन्तु अब मानव से दानव बन गये,
खो गयी जाने कहाँ? प्राचीनता,
मूल्य मानव के सभी तो मिट गये,
शारदा में पंक है आया हुआ,
हे प्रभो! इस आदमी को देख लो,
लिप्त है इसमे बहुत शैतानियत,
आज परिवर्तन हुआ कैसा घना,
हो गयी है लुप्त सब इन्सानियत।
प्रिय ब्लागर मित्रों!
रिश्तेदारी निभाने के लिए एक सप्ताह के लिए सुदूर स्थान पर जा रहा हूँ।
इस अवधि में मेरी रचनाएँ तो मेरे ब्लाग पर प्रकाशित होती ही रहेंगी।
परन्तु चाह कर भी आपकी रचनाएँ पढ़ने को नही मिलेंगी।
आशा ही नही आप सबका स्नेह व प्यार मुझे पूर्ववत् मिलता रहेगा।
तुम्हारी याद को लेकर, बड़ी ही दूर आये हैं।
छिपाकर अपनी आँखों में तुम्हारा नूर लाये हैं।
लबों पर प्यास आयी तो, तुम्हारे जाम पाये हैं।
लिखाकर तन-बदन में, हम तुम्हारा नाम लाये हैं।
धूप के संसार में
लोग
मोम जैसे बन गये हैं,
हर चेहरा,
सुबह को कुछ और है,
जाना पहचाना सा लगता है,
परन्तु
शाम तक,
पिघल जाता है
और
बदसूरत हो जाता है,
वह
अपना रूप,
आकृति
सब कुछ बदल लेता है।
कहते हैं,
मनुष्य योनी,
श्रेष्ठ कहलाती है,
तभी तो, पतन की ओर,
उन्मुख होती चली जाती है,
श्रेष्ठता की
चरम सीमा,
मनुष्य,
जीव जन्तुओं का बना रहा है,
कीमा,
हे जीव-जन्तुओ!
तुम अपने राजा से
परिवाद क्यों नही करते?
न्याय की,
गुहार क्यों नही करते?
तभी इन निरीह जीवों की,
आवाज आती है,
जो,
हृदय को हिला जाती है,
हमारी,
शिकायत सुनेगा कौन?
अन्धेर नगरी में,
सभी तो हैं मौन,
हमारा तो,
अहित ही अहित है,
क्योंकि,
हमारा राजा भी तो,
हमीं को खाकर जीवित है।
‘‘महाप्रयाण’’
आज मानव की स्थिति है
रेगिस्तान में
फँसे गधे की भाँति,
जिसमें मृग-मरीचिका के समान
उसे दिखाई देती है
पानी की पाँति,
जल की खोज में
इधर-उधर भागता रहता है,
रात में भी
जागता रहता है,
पानी का
होता तो है आभास,
परन्तु
बुझा नही पाता
अपनी प्यास,
वह चलता जाता है,
और चलता जाता है,
भवसागर से
अधूरी प्यास लिए
दुनिया से चला जाता है,
वह एक सन्देश,दे जाता है,
दुःख उठाते रहो,
जब तक देह में प्राण है,
शायद, जीवन का,
यही ‘‘महाप्रयाण’’ है।।
जहाँ न पहुँचे रवि,
वहाँ पहुँचे कवि,
इस उक्ति को
यदि सत्य मान लें,
तो इतना भी जान लें,
कवि ही
समाजरूपी भवन का
सुदृढ़ स्तम्भ है,
कवि ही
संस्कृति का आलम्ब है,
क्योंकि,
आज का समाज है
एक जर्जर समाज,
इसके अनोखे हैं ढंग,
इसीलिए तो बदरंग हैं
कविता के रंग,
विलुप्त हो गई है
गति और यति
शायद इसकी
यही है नियति।
तुम्हीं वन्दना, तुम्ही साधना।