अल्लाह निगह-ए-बान है, वो है बड़ा करीम।
जाति, धरम से बाँध मत, मौला को ऐ शमीम।।
बख्शी है हर बशर को, उसने इल्म की दौलत,
इन्सां को सँवारा है, दे शऊर की नेमत,
क्यों भाई को भाई से जुदा कर रहा फईम।
जाति, धरम से बाँध मत, मौला को ऐ शमीम।।
कर नेक दिल से, रब की इबादत अरे बन्दे,
सच्चाई पे चल, दफ्न कर, काले सभी धन्धे,
बन जा जमीं का आदमी और छोड़ दे नईम।
जाति, धरम से बाँध मत, मौला को ऐ शमीम।।
शैतानियत की राह से, नाता तू तोड़ ले,
हुब्बे वतन की राह से, नाता तू जोड़ ले,
मिल सबसे तू खुलूस से, कह राम और रहीम।
जाति, धरम से बाँध मत, मौला को ऐ शमीम।।
आबाद मत फरेब कर, नाहक न हो बदनाम,
इन्सानियत की राह में, मजहब का नही काम,
सबके दिलों बैठ जा, बन करके तू नदीम।
जाति, धरम से बाँध मत, मौला को ऐ शमीम।।
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"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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रविवार, 30 नवंबर 2014
"खुलूस से कह राम और रहीम" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शनिवार, 29 नवंबर 2014
"आँखों में होती है भाषा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आशा और निराशा की जो,
पढ़ लेते हैं सारी भाषा।
दो नयनों में ही होती हैं, है
दुनिया की पूरी परिभाषा।।
दुख के बादल आते ही ये,
खारे जल को हैं बरसाते।
सुख का जब अनुभव होता है,
तब ये फूले नहीं समाते।
सरल बहुत हैं-चंचल भी हैं,
इनके भीतर भरी पिपासा।
दो नयनों में ही होती हैं,
दुनिया की पूरी परिभाषा।।
कुछ में होती है खुद्दारी,
कुछ में होती है मक्कारी।
कुछ ऐसी भी आँखें होती,
जिनमें होती है गद्दारी।
ऐसी बे-ग़ैरत आँखों से,
मन में होती बहुत हताशा।
दो नयनों में ही होती हैं,
दुनिया की पूरी परिभाषा।।
दुनिया भर की सरिताओं का,
इसमें आकर पानी ठहरा।
लहर-लहरकर लहरें उठतीं,
ये भावों का सागर गहरा।
बिन आँखों के जग सूना है,
ये जीवन की हैं अभिलाषा।
दो नयनों में ही होती हैं,
दुनिया की पूरी परिभाषा।।
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शुक्रवार, 28 नवंबर 2014
"दम घुटता है आज वतन में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सज्जनता बेहोश हो गई,
दुर्जनता पसरी आँगन में।
कोयलिया खामोश हो गई,
मंडराती हैं चील चमन में।।
|
अबलाओं के कपड़े फाड़े,
लज्जा के सब गहने हारे,
यौवन के बाजार लगे हैं,
नग्न-नग्न शृंगार सजे हैं,
काँटें बिखरे हैं कानन में।
|
मानवता की झोली खाली,
दानवता की है दीवाली,
कितना है बेशर्म-मवाली,
अय्यासी में डूबा माली,
दम घुटता है आज वतन में।
|
रवि ने शीतलता फैलाई,
पूनम ताप बढ़ाने आई,
बदली बेमौसम में छाई,
धरती पर फैली है काई,
दशा देख दुख होता मन में।
|
सुख की खातिर पश्चिमवाले,
आते हैं होकर मतवाले,
आज रीत ने पलटा खाया,
हमने उल्टा पथ अपनाया,
खोज रहे हम सुख को धन में।
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श्वान पालते बालों वाले,
बौने बने बड़े मनवाले,
जो थे राह दिखाने वाले,
भटक गये हैं बीहड-वन में।
मंडरातीं हैं चील चमन में।।
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बुधवार, 26 नवंबर 2014
"दोहे-जीवन पतँग समान" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आसमान
का है नहीं, कोई ओर न छोर।
जीवन
पतँग समान है, कच्ची जिसकी डोर।।
--
अंधकार
का रौशनी, नहीं निभाती साथ।
भोर-साँझ
का खेल तो, सूरज के है हाथ।।
--
मछली
पानी के बिना, रहती सदा उदास।
लेकिन
जल में भी नहीं, बुझती उसकी प्यास।।
--
हैं संयोग-वियोग
के, बहुत अनोखे ढंग।
आँसू के-मुस्कान
के, अलग-अलग हैं रंग।।
--
सुन्दरता
को देखकर, मत होना मदहोश।
पत्तों
पर तो देर तक, नहीं ठहरती ओस।।
--
कभी न
आता लौटकर, बीत गया जो सत्र।
हरे
नहीं होते कभी, पीले-पीले पत्र।।
--
भेद-भाव रखता नहीं, सुमन बाँटता गन्ध।
लेकिन सबके
भाग्य में, लिखा नहीं मकरन्द।।
|
"साँस की डोर-देवदत्त 'प्रसून' " (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मित्रों।
कवि देवदत्त "प्रसून" आज हमारे बीच नहीं हैं।
लेकिन उनका साहित्य अमर रहेगा।
--
डोर तुम्हारे हाथों में (देवदत्त प्रसून)मेरी साँस की डोर तुम्हारे हाथों में ।
है दामन
का छोर तुम्हारे हाथों में ।।
प्यासा जैसे रहा
हो कोई सावन में -
खडा लिये
उम्मीद जैसे आँगन
में ।।
तुम आये
मन भीग उठा, आनन्द
मिला -
मैं
हूँ हर्ष विभोर, प्रेम
सौगातों में ।
नाच उठे ज्यों मोर सघन बरसातों में ।।1।।
लम्बी
बिरह के बाद तुम्हारी पहुनाई ।
जैसे
बादल हटे पूर्णिमा खिल
आयी ।।
बिखरा सुन्दर
हास,धरा के
आँचल में -
ज्यों खुश
हुए चकोर , चाँदनी
रातों में ।।2।।
मिलन की वीण से पीडित मन बहलाओ ।
तार प्यार
के धीरे धीरे
सहलाओ ।।
अँगुली का
वरदान जगे मीठी सरगम ।
छुपे हैं मीठे
शोर, मधुर
आघातों में ।
डूबी हर
टंकोर ,मृदुल
सुर सातों में ।।3।।
मैंने मन की
कह ली, तुम भी बोलो तो
।
मेरे कानों में भी मधु रस घोलो तो ।।
है मिठास मिसरी सी कितनी स्वाद भरी -
हे प्रियतम
चितचोर , तुम्हारी
बातों में ।
सुख मिल
गयाअथोर ,स्नेह
के नातों में ।।4 ।।
"प्रसून
"तेरी याद इस तरह मन में है -
मीठी
मीठी गन्ध महकती सुमन में है ।।
कोई
सुन्दर मोती मानों सीप में हो -
उतरे जैसे
हंस बगुल की
पाँतों में ।
या शबनम
की बूँद कमल की पाँतों में।।5।।
|
मंगलवार, 25 नवंबर 2014
"देवदत्त 'प्रसून' जी हमारे बीच नहीं रहे।" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आज ही प्रातःकाल हृदयगति रुक जाने से
उनका देहान्त हुआ है।
सोमवार, 24 नवंबर 2014
"बालगीत-राजा हूँ मैं अपने मन का" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
राही
हूँ मैं अपने पथ का
राजा
हूँ मैं अपने मन का
भटक
रहा हूँ अन्धकार में
लक्ष्य
नहीं है इस जीवन का
चन्दा
मुझसे डर जाता है
सूरज
मुझसे शरमाता है
गरज
रहा हूँ बरस रहा हूँ
आवारा
घन हूँ सावन का
राजा
हूँ मैं अपने मन का
लेकर
आता मैं खुशहाली
धरती
में भरता हरियाली
मैं
चातक की प्यास बुझाता
श्याम-सखा
हूँ वृन्दावन का
राजा
हूँ मैं अपने मन का
मैं
ही सरिता मैं ही सागर
मुझसे
ही भरती है गागर
मैं
लाता हूँ जल की धारा
प्यारा
हूँ मैं जन-गण-मन का
राजा
हूँ मैं अपने मन का
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रविवार, 23 नवंबर 2014
"गीत-क़लम मचल जाया करती है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जब कोई श्यामल सी बदली,
सपनों में छाया करती है!
तब मेरे मन में शब्दों की,
माला बन जाया करती है!!
निर्धारित कुछ समय नही है,
कोई अर्चना-विनय नही है,
जब-जब निद्रा में होता हूँ,
तब-तब यह आया करती है!
माला बन जाया करती है!!
अन्तस से जो शब्द निकलते,
शोला बनकर आग उगलते,
चिंगारी जब धधक उठे तो,
ज्वाला बन जाया करती है!
माला बन जाया करती है!!
दीन-दुखी की व्यथा देखकर,
धनवानों की कथा देखकर,
दर्पण दिखलाने को मेरी,
क़लम मचल जाया करती है!
माला बन जाया करती है!!
भँवरे ने जब राग सुनाया,
कोयल ने जब गाना गाया,
मधुर स्वरों को सुनकर मेरी,
नींद टूट जाया करती है!
माला बन जाया करती है!!
वैरी ने हुँकार भरी जब,
धनवा ने टंकार करी तब,
नोक लेखनी की तब मेरी,
भाला बन जाया करती है!
माला बन जाया करती है!!
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शनिवार, 22 नवंबर 2014
‘‘करनी-भरनी-काठी का दर्द’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
उन दिनों मेरे दोनों पुत्र बहुत छोटे थे। तब अक्सर पिकनिक का कार्यक्रम बन जाता था। कभी हम लोग पहाड़ पर श्यामलाताल चले जाते थे, कभी माता पूर्णागिरि देवी के मन्दिर में माथा टेकने चले जाते थे और कभी नेपाल के शहर महेन्द्रनगर में घूम आते थे। यहाँ से 20-25 किमी की दूरी पर गुरू नानक साहिब का विशाल गुरूद्वारा "नानकमत्ता साहिब" भी है कभी-कभी वहाँ भी मत्था टेक आते थे।
अब तो नानकमत्ता में 5 कमरों का एक घर भी बना लिया है। जब तक पिता जी समर्थ थे तब तक इसमें तपस्थली विद्यापीठ के नाम से एक छोटे बालकों का विद्यालय भी वो चलाते थे।
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