आज से ठीक चौदह वर्ष पूर्व भारत के 27वें राज्य के रूप में
9 नवम्बर, सन् 2000 को उत्तराखण्ड राज्य की स्थापना हुई थी!
उत्तराखण्ड राज्य का गठन - 9 नवम्बर, 2000
9 नवम्बर सन 2000 में उत्तर प्रदेश पर्वतीय जिलों को अलग कर के उत्तराखण्ड राज्य बनाया गया था। इस राज्य में अब तक 7 मुख्यमंत्री रह चुके हैं, जिनमे से चार भारतीय जनता पार्टी से व शेष तीन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से हैं। नित्यानन्द स्वामी राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री थे।
कुल क्षेत्रफल - 53,483 वर्ग कि.मी. कुल वन क्षेत्र - 35,384 वर्ग कि.मी. राजधानी - देहरादून (अस्थायी) सीमाएँ अन्तर्राष्ट्रीय - चीन, नेपाल राष्ट्रीय - उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश कुल जिले - 13 उच्च न्यायालय - नैनीताल प्रति व्यक्ति आय - 15,187 रुपये प्रशासनिक इकाई मण्डल - 2 (कुमाऊँ और गढ़वाल) तहसील - 78 विकास खण्ड - 95 न्याय पंचायत - 670 ग्राम पंचायत - 7,227 कुल ग्राम - 16,826 नगर निगम - 1 आबाद ग्राम - 15,761 शहरी इकाइयाँ - 86 नगर पालिकाएँ - 31 नगर पंचायत - 31 छावनी परिषद - 09 कुल जनसंख्या - 84,89,349 (सन् 2000 में) पुरुष - 43,35,924 महिलाएँ - 41,63,425 लिंग अनुपात - 984 : 1000 (महिला : पुरुष) आँकड़े 2001 की जनगणना के अनुसार | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
प्रमुख पर्यटन एवं ऐतिहासिक स्थल- नैनीताल, मसूरी, पौड़ी, रानीखेत, चम्पावत, द्यारा, औली, खिर्सू, खतलिंग, वेदिनी बुग्याल, फूलों की घाटी, लैंसडाउन, लाखामण्डल, पाताल भुवनेश्वर, गंगोलीहाट, जौलजीबी, पूर्णागिरि, नानकमत्ता साहिब, चितई गोलू देवता, कटारमल, कौसानी, गागेश्वर धाम, द्वाराहाट, सोमेश्वर, बैजनाथ धाम, पिण्डारी ग्लेशियर, शिखर इत्यादि। | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
प्रमुख धार्मिक स्थल- बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री, पंचकेदार, पंचबदरी, पंच प्रयाग, हरिद्वार, ऋषिकेश, हेमकुण्ड साहिब, पूर्णागिरि, चितई गोलू देवता, पिरान कलियर, नानकमत्ता साहिब, रीठा साहिब, बौद्ध स्तूप देहरादून आदि। | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
प्रमुख लोकगीत एवं लोक नृत्य- झुमैलो, थड़्या, चौफला, रासौ, पण्डवानी, तांदी, भड़गीत, जागर, चांचरी, पांडव, झोडा, छोलिया, थारू आदिवासी नृत्य आदि। | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
मौसम- ग्रीष्मकाल- मार्च से जून के मध्य तक, वर्षाकाल- मद्य जून से मध्य सितम्बर तक, शीतकाल- मध्य सितम्बर से फरवरी तक। | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
राज्य पुष्प- ब्रह्म कमल (SAUSSUREA OBVALLATA)। | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
राज्य पशु- कस्तूरी मृग (MOSCHUS CHRYSOGASTER)। | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
राज्य वृक्ष- बुरांश (RHODODENDRONARBOREUM)। | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
राज्य पक्षी- मोनाल (LOPHOORUS IMPEGANUS)। | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
आय के प्रमुख स्रोत- वन सम्पदा, विद्युत, जल संसाधन, जड़ी बूटी, पर्यटन, तीर्थाटन, खनिज सम्पदा आदि। | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
प्रमुख खनिज- चूना, पत्थर, मैग्नेसाइट, जिप्सम आदि। | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
प्रमुख फसलें- धान, गेहूँ, जौ, मण्डुआ, झंगोरा, मक्का, चौलाई आदि। | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
प्रमुख फल- आम, सेव, लीची, जामुन, नाशपाती, माल्टा आदि। | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
प्रमुख नदियाँ- भागीरथी (गंगा), अलकनन्दा, मन्दाकिनी। (गंगा, पिण्डारी, टौन्स, यमुना, काली, गोरी, सरयू, नयार, भिलंगना, शारदा आदि। उत्तराखण्ड का इतिहास (विकीपीडिया से साभार)
उत्तराखण्ड का शाब्दिक अर्थ उत्तरी भाग
होता है। इस नाम का उल्लेख प्रारम्भिक हिन्दू ग्रन्थों में भी मिलता है, जहाँ
पर केदारखण्ड (वर्तमान गढ़वाल) और मानसखण्ड (वर्तमान कुमाऊँ) के रूप में इसका
उल्लेख हुआ है। उत्तराखण्ड प्रचीन पौराणिक धब्द भी है जो हिमालय के मध्य फैलाव के
लिए प्रयुक्त किया जाता था। वर्तमान में इसे "देवभूमि" भी कहा जाता है
क्योंकि यहाँ पर असंख्य हिन्दू तीर्थ स्थल हैं। पौरव, कुशान, गुप्त, कत्यूरी, रायक, पाल, चन्द, परमार और अंग्रेज़ों ने बारी-बारी से
यहाँ शासन किया था।
अंग्रेज इतिहासकारों के अनुसार हुण, सकास, नाग
खश आदि जातियां भी हिमालय क्षेत्र में निवास करती थी। किन्तु पौराणिक ग्रन्थों में
केदार खण्ड व मानस खण्ड के नाम से इस क्षेत्र का व्यापक उल्लेख है।
इस क्षेत्र को देव-भूमि व तपोभूमि माना
गया है। मानस खण्ड का कुर्मांचल व कुमाऊँ नाम चन्द राजाओं के शासन काल में प्रचलित
हुआ। कुर्मांचल पर चन्द राजाओं का शासन कत्यूरियों के बाद प्रारम्भ होकर सन १७९०
तक रहा। सन १७९० में नेपाल की गोरखा सेना ने कुमाऊँ पर आक्रमण कर कुमाऊँ राज्य को
अपने आधीन कर दिया।
गोरखाओं का कुमाऊँ पर सन १७९० से १८१५
तक शासन रहा। सन १८१५ में अंग्रजो से अन्तिम बार परास्त होने के उपरान्त गोरखा
सेना नेपाल वापिस चली गई किन्तु अंग्रजों ने कुमाऊँ का शासन चन्द राजाओं को न देकर
कुमाऊं को ईस्ट इण्ड़िया कम्पनी के अधीन कर किया। इस प्रकार कुमाऊँ पर अंग्रेजो का
शासन १८१५ से प्रारम्भ हुआ।
उत्तराखण्ड में दो मण्डल हैं
गढ़वाल और कुमाऊँ
ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार केदार खण्ड
कई गढों (किले) में विभक्त था। इन गढों के अलग राजा थे और राजाओं का अपने-अपने
आधिपत्य वाले क्षेत्र पर साम्राज्य था। इतिहासकारों के अनुसार पंवार वंश के राजा
ने इन गढो को अपने अधीनकर एकीकृत गढ़वाल राज्य की स्थापना की और श्रीनगर को अपनी
राजधानी बनाया। केदारखण्ड का गढ़वाल नाम तभी प्रचलित हुआ। सन १८०३ में नेपाल की
गोरखा सेना ने गढ़वाल राज्य पर आक्रमण कर गढ़वाल राज्य को अपने अधीन कर लिया।
महाराजा गढ़वाल ने नेपाल की गोरखा सेना के अधिपत्य से राज्य को मुक्त कराने के लिए
अंग्रजो से सहायता मांगी।
अंग्रेज़ सेना ने नेपाल की गोरखा सेना
को देहरादून के समीप सन १८१५ में अन्तिम रूप से परास्त कर दिया। किन्तु गढ़वाल के
तत्कालीन महाराजा द्वारा युद्ध व्यय की निर्धारित धनराशि का भुगतान करने में
असमर्थता व्यक्त करने के कारण अंग्रजो ने सम्पूर्ण गढवाल राज्य गढ़वाल को न सौप कर
अलकनन्दा मन्दाकिनी के पूर्व का भाग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन में शामिल कर
गढवाल के महाराजा को केवल टिहरी जिले (वर्तमान उत्तरकाशी सहित) का भू-भाग वापिस
किया। गढ़वाल के तत्कालीन महाराजा सुदर्शन शाह ने २८ दिसम्बर १८१५ को टिहरी नाम के
स्थान पर जो भागीरथी और मिलंगना के संगम पर छोटा सा गॉव था, अपनी
राजधानी स्थापित की।
कुछ वर्षों के उपरान्त उनके
उत्तराधिकारी महाराजा नरेन्द्र शाह ने ओड़ाथली नामक स्थान पर नरेन्द्रनगर नाम से
दूसरी राजधानी स्थापित की। सन १८१५ से देहरादून व पौडी गढवाल (वर्तमान चमोली जिलो
व रूद्र प्रयाग जिले की अगस्तमुनि व ऊखीमठ विकास खण्ड सहित) अंग्रेज़ो के अधीन व
टिहरी गढ़वाल महाराजा टिहरी के अधीन हुआ।
उत्तराखण्ड में ईस्ट इंडिया कंपनी का
आगमन 1815 में हुआ। वास्तव में यहां अंग्रेजों का आगमन गोरखों के 25 वर्षीय
सामन्ती सैनिक शासन का अंत भी था। 1815 से 1857 तक यहां कंपनी का शासन का
दौर सामान्यतः शान्त और गतिशीलता से बंचित शासन के रूप में जाना जाता है। ईस्ट
इंडिया कंपनी के अधिकार में आने के बाद यह क्षेत्र ब्रिटिश गढवाल कहलाने लगा था।
किसी प्रबल विरोध के अभाव मे अविभाजित गढवाल के राजकुमार सुदर्शनशाह को कंपनी ने
आधा गढ़वाल देकर मना लिया परन्तु चंद शासन के उत्तराधिकारी यह स्थिति भी न प्राप्त
कर सके।
1856-1884 तक उत्तराखण्ड हेनरी रैमजे के
शासन में रहा तथा यह युग ब्रिटिश सत्ता के शक्तिशाली होने के काल के रूप में
पहचाना गया। इसी दौरान सरकार के अनुरूप समाचारों का प्रस्तुतीकरण करने के लिये
1868 में समय विनोद तथा 1871 में अल्मोड़ा अखबार की शुरूआत हुयी। 1905 मे बंगाल के
विभाजन के बाद अल्मोडा के नंदा देवी नामक स्थान पर विरोध सभा हुयी। इसी वर्ष
कांग्रेस के बनारस अधिवेशन में उत्तराखंड से हरगोविन्द पंत, मुकुन्दीलाल, गोविन्द
बल्लभ पंत बदरी दत्त पाण्डे आदि युवक भी सम्मिलित हुये।
1906 में हरिराम त्रिपाठी ने
वन्देमातरम् जिसका उच्चारण ही तब देशद्रोह माना जाता था उसका कुमाऊँनी अनुवाद
किया।
भारतीय स्वतंत्रता आंन्देालन की एक इकाई के रुप मे उत्तराखंड में स्वाधीनता संग्राम के दौरान 1913 के कांग्रेस अधिवेशन
में उत्तराखंड के ज्यादा प्रतिनिधि सम्मिलित हुये। इसी वर्ष उत्तराखंड के अनुसूचित
जातियों के उत्थान के लिये गठित टम्टा सुधारिणी सभा का रूपान्तरण एक व्यापक
शिल्पकार महासभा के रूप में हुआ।
1916 के सितम्बर माह में हरगोविन्द पंत
गोविन्द बल्लभ पंत बदरी दत्त पाण्डे इन्द्रलाल साह मोहन सिंह दड़मवाल चन्द्र लाल
साह प्रेम बल्लभ पाण्डे भोलादत पाण्डे ओर लक्ष्मीदत्त शास्त्री आदि उत्साही युवकों
के द्वारा कुमाऊँ परिषद की स्थापना की गयी जिसका मुख्य उद्देश्य तत्कालीन
उत्तराखंड की सामाजिक तथा आर्थिक समस्याआं का समाधान खोजना था। 1926 तक इस संगठन
ने उत्तराखण्ड में स्थानीय सामान्य सुधारो की दिशा के अतिरिक्त निश्चित राजनैतिक
उद्देश्य के रूप में संगठनात्मक गतिविधियां संपादित कीं।
1923 तथा 1926 के
प्रान्तीय काउन्सिल के चुनाव में गोविन्द बल्लभ पंत हरगोविन्द पंत मुकुन्दी लाल
तथा बदरी दत्त पाण्डे ने प्रतिपक्षियों को बुरी तरह पराजित किया। 1926 में कुमाऊँ
परिषद का कांग्रेस में विलीनीकरण कर दिया गया। 1927 में साइमन कमीशन की घोषणा के तत्काल बाद इसके विरोध
में स्वर उठने लगे और जब 1928 में कमीशन देश मे पहुचा तो इसके विरोध में 29 नवम्बर
1928 को जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 16 व्यक्तियों की एक टोली ने विरोध किया
जिस पर घुड़सवार पुलिस ने निर्ममता पूर्वक लाठियों-डंडो से प्रहार किया। जवाहरलाल नेहरू को
बचाने के लिये गोविन्द बल्लभ पंत पर हुये लाठी के प्रहार के शारीरिक दुष्परिणाम
स्वरूप वे बहुत दिनों तक कमर सीधी नहीं कर सके थे।
भारतीय गणतन्त्र में टिहरी राज्य का
विलय अगस्त १९४९ में हुआ और टिहरी को तत्कालीन संयुक्त प्रान्त (उ.प्र.) का एक
जिला घोषित किया गया। १९६२ के भारत-चीन युद्ध की पृष्ठ भूमि में सीमान्त क्षेत्रों
के विकास की दृष्टि से सन १९६० में तीन सीमान्त जिले उत्तरकाशी, चमोली
व पिथौरागढ़ का गठन किया गया।
कत्युरी राजा वीर देव के पश्चात
कत्युरियों के साम्राज्य का पूर्ण विभाजन हो गया तथा यह न केवल अपनी जाति के अपितु
कुछ बाहरी कबीलों के भी अधीन बट गया। गढ़वाल का एक बहुत बड़ा भाग कत्युरियों के
हाथों से निकल गया तथा शेष कुमाऊण्ण् क्षेत्र छह कबीलों में बँट गया। तत्पश्चात
कतुरिस साम्राज्य को नेपाली राजाओं अहोकछला (११९१ ईस्वी) तथा कराछला देव (१२२३
ईस्वी) ने अपने राज्य में मिला लिया। यह दोनों आक्रमण विभिन्न कबीलों में परस्पर
शत्रुता के कारण निर्णायक सावित हुए। तत्पश्चात संपूर्ण साम्राज्य ६४ अथवा कुछ
मतों के अनुसार ५२ गढ़ों में विभाजित हो गया। इन सभी गढ़ों के सरदार अक्सर आपस में
झगड़ते रहते थे। सोलहवी शताब्दी के प्रारंभ में कनक पाल के वंशज अजय पाल ने जो की
चांदपुर गढ़ी कबीलों का सरदार था, सम्पूर्ण गढ़वाल को एक कर दिया।
पांडुकेश्वर की तांबे की प्लेटें
(ताम्रपत्र) दर्शाती हैं कि इस बेराज की राजधानी कार्तिकेयपुरा नीति-माना घाटी में
और आगे चलकर कात्यूर घाटी में स्थित थी। एटकिंशन ने काबुल की घाटी से इस वंशज की
उत्पत्ति का पता लगाया तथा उनकों काटोरों से जोड़ा।
गैरौला और नौटियाल के अनुसार, कात्यूरी
छोटी खासा जनजाति थी जो मूलतः गढ़वाल के उत्तर में जोशीमठ में रहती थी तथा बाद में
कुमाऊं की कात्यूर घाटी में चली गई। कात्यूरियों ने पौरवों और तिब्बती हमलावरों के
पतन के बाद अपनी ताकत बढ़ाई तथा ७ वीं शताब्दी के अन्त और ८ वीं शताब्दी के आरम्भ
में वे स्वतन्त्र हो गए।
प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में कुमाऊँ को
मानसखण्ड कहा गया। अक्टूबर १८१५ में डब्ल्यू जी ट्रेल ने गढ़वाल तथा कुमाऊँ
कमिश्नर का पदभार संभाला। उनके पश्चात क्रमशः बैटन, बैफेट, हैनरी, रामसे, कर्नल फिशर, काम्बेट, पॉ इस डिवीजन के कमिश्नर आये तथा
उन्होंने भूमि सुधारो, निपटारो, कर, डाक व तार विभाग, जन
सेहत, कानून की पालना तथा क्षेत्रीय भाषाओं के प्रसार आदि जनहित
कार्यों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया।
अंग्रेजों के शासन के समय हरिद्वार से
बद्रीनाथ और केदारनाथ तथा वहां से कुमाऊँ के रामनगर क्षेत्र की तीर्थ यात्रा के
लिये सड़क का निर्माण हुआ और मि. ट्रैल ने १८२७-२८ में इसका उदघाटन कर इस दुर्गम व
शारीरिक कष्टों को आमंत्रित करते पथ को सुगम और आसान बनाया।
कुछ ही दशकों में गढ़वाल ने भारत में एक
बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया तथा शूरवीर जातियों की धरती के रूप में अपनी
पहचान बनाई। लैण्डसडाउन नामक स्थान पर गढ़वाल सैनिकों की 'गढ़वाल राइफल्स'
के नाम से दो
रेजीमेंटस स्थापित की गईं।
निःसंदेह आधुनिक शिक्षा तथा जागरूकता ने
गढ़वालियों को भारत की मुख्यधारा में अपना योगदान देने में बहुत सहायता की।
उन्होंने आजादी के संघर्ष तथा अन्य सामाजिक आंदोलनों में भाग लिया। आजादी के
पश्चात १९४७ ई. में गढ़वाल उत्तर प्रदेश का एक जिला बना तथा २००१ में उत्तराखण्ड
राज्य का जिला बना।
अल्मोड़ा
प्राचीन अल्मोड़ा कस्बा, अपनी
स्थापना से पहले कत्यूरी राजा बैचल्देओ के अधीन था। उस राजा ने अपनी धरती का एक
बड़ा भाग एक गुजराती ब्राह्मण श्री चांद तिवारी को दान दे दिया। बाद में जब
बारामण्डल चांद साम्राज्य का गठन हुआ, तब कल्याण चंद द्वारा १५६८ में अल्मोड़ा
कस्बे की स्थापना इस केन्द्रीय स्थान पर की गई। कल्याण चंद द्वारा।तथ्य वांछित चंद
राजाओं के समय मे इसे राजपुर कहा जाता था। 'राजपुर' नाम का बहुत सी प्राचीन ताँबे की
प्लेटों पर भी उल्लेख मिला है।
नैनीताल
एक पौराणिक कथा के अनुसार दक्ष प्रजापति
की पुत्री उमा का विवाह शिव से हुआ था। शिव को दक्ष प्रजापति पसन्द नहीं करते थे, परन्तु
यह देवताओं के आग्रह को टाल नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह न
चाहते हुए भी शिव के साथ कर दिया था। एक बार दक्ष प्रजापति ने सभी देवताओं को अपने
यहाँ यज्ञ में बुलाया, परन्तु अपने दामाद शिव और बेटी उमा को
निमन्त्रण तक नहीं दिया। उमा हठ कर इस यज्ञ में पहुँची। जब उसने हरिद्वार स्थित
कनखल में अपने पिता के यज्ञ में सभी देवताओं का सम्मान और अपने पति और अपनी
निरादर होते हुए देखा तो वह अत्यन्त दु:खी हो गयी। यज्ञ के हवनकुण्ड में यह कहते
हुए कूद पड़ी कि 'मैं अगले जन्म में भी शिव को ही अपना
पति बनाऊँगी।
आपने मेरा और मेरे पति का जो निरादर
किया इसके प्रतिफल - स्वरुप यज्ञ के हवन - कुण्ड में स्वयं जलकर आपके यज्ञ को असफल
करती हूँ।' जब शिव को यह ज्ञात हुआ कि उमा सती हो
गयी, तो उनके क्रोध का पारावार न रहा। उन्होंने अपने गणों के द्वारा
दक्ष प्रजापति के यज्ञ को नष्ट - भ्रष्ट कर डाला। सभी देवी - देवता शिव के इस
रौद्र - रुप को देखकर सोच में पड़ गए कि शिव प्रलय न कर ड़ालें। इसलिए देवी -
देवताओं ने महादेव शिव से प्रार्थना की और उनके क्रोध को शान्त किया। दक्ष
प्रजापति ने भी क्षमा माँगी। शिव ने उनको भी आशीर्वाद दिया।
सती के जले हुए शरीर को देखकर शिव जी का
वैराग्य उमड़ पड़ा। उन्होंने सति के जले हुए शरीर को कन्धे पर डालकर आकाश - भ्रमण करना
शुरु कर दिया। ऐसी स्थिति में जहाँ - जहाँ पर शरीर के अंग किरे, वहाँ
- वहाँ पर शक्ति पीठ हो गए। जहाँ पर सती के नयन गिरे थे ;
वहीं पर नैनादेवी के
रुप में उमा अर्थात् नन्दा देवी का भव्य स्थान हो गया। आज का नैनीताल वही स्थान है, जहाँ
पर उस देवी के नैन गिरे थे। नयनों की अश्रुधार ने यहाँ पर ताल का रुप ले लिया।
तबसे निरन्तर यहाँ पर शिवपत्नी नन्दा (पार्वती) की पूजा नैनादेवी के रुप में होती
है।
टनकपुर (चम्पावत)
टनकपुर कुमाऊँ का प्रवेशद्वार कहा जाता है। यहां से 17 किमी दूर पूर््णागिरि पर्वत पर सती की नाभि गिरी थी इसलिए इस पर्वत पर माँ पूर्णागिरि की सिद्धपीठ है जहाँ प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालू माता के दर्शनों को आते हैं।
पिथौरागढ़
यहां के निकट एक गांव में मछली एवं
घोंघो के जीवाश्म पाये गये हैं जिससे इंगित होता है कि पिथौरागढ़ का क्षेत्र
हिमालय के निर्माण से पहले एक विशाल झील रहा होगा। हाल-फिलहाल तक पिथौरागढ़ में
खास वंश का शासन रहा है, जिन्हें यहां के किले या कोटों के
निर्माण का श्रेय जाता है।
पिथौरागढ़ के आस-पास चार कोटें हैं जो
भाटकोट, डूंगरकोट, उदयकोट तथा ऊंचाकोट हैं। खास वंश के बाद
यहां कचूडी वंश (पाल-मल्लासारी वंश) का शासन हुआ तथा इस वंश का राजा अशोक मल्ला, बलबन
का समकालीन था। इसी अवधि में राजा पिथौरा द्वारा पिथौरागढ़ स्थापित किया गया तथा
इसी के नाम पर पिथौरागढ़ नाम भी पड़ा। इस वंश के तीन राजाओं ने पिथौरागढ़ से ही
शासन किया तथा निकट के गांव खङकोट में उनके द्वारा निर्मित ईंटो के किले को वर्ष
१५६० में पिथौरागढ़ के तत्कालीन जिलाधीश ने ध्वस्त कर दिया। वर्ष १६२२ से आगे
पिथौरागढ़ पर चंद वंश का आधिपत्य रहा।
पिथौरागढ़ के इतिहास का एक अन्य
विवादास्पद वर्णन है। एटकिंस के अनुसार, चंद वंश के एक सामंत पीरू गोसाई ने
पिथौरागढ़ की स्थापना की।
ऐसा लगता है कि चंद वंश के राजा भारती
चंद के शासनकाल (वर्ष १४३७ से १४५०) में उसके पुत्र रत्न चंद ने नेपाल के राजा
दोती को परास्त कर सौर घाटी पर अधिकार कर लिया एवं वर्ष १४४९ में इसे कुमाऊँ या
कुर्मांचल में मिला लिया। उसी के शासनकाल में पीरू या पृथ्वी गोसांई ने पिथौरागढ़
नाम से यहां एक किला बनाया। किले के नाम पर ही बाद में इसका नाम पिथौरागढ़ हुआ।
चंदों ने अधिकांश कुमाऊँ पर अपना अधिकार
विस्तृत कर लिया जहां उन्होंने वर्ष १७९० तक शासन किया। उन्होंने कई कबीलों को
परास्त किया तथा पड़ोसी राजाओं से युद्ध भी किया ताकि उनकी स्थिति सुदृढ़ हो जाय।
वर्ष १७९० में, गोरखियाली कहे जाने वाले गोरखों ने
कुमाऊँ पर अधिकार जमाकर चंद वंश का शासन समाप्त कर दिया।
वर्ष १८१५ में गोरखा शासकों के शोषण का
अंत हो गया जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन्हें परास्त कर कुमाऊँ पर अपना आधिपत्य
स्थापित कर लिया। एटकिंस के अनुसार, वर्ष १८८१ में पिथौरागढ़ की कुल
जनसंख्या ५५२ थी। अंग्रेज़ों के समय में यहां एक सैनिक छावनी, एक
चर्च तथा एक मिशन स्कूल था। इस क्षेत्र में क्रिश्चियन मिशनरी बहुत सक्रिय थे।
वर्ष १९६० तक अंग्रजों की प्रधानता सहित पिथौरागढ़, अल्मोड़ा जिले का एक तहसील था जिसके बाद
यह एक जिला बना। वर्ष १९९७ में पिथौरागढ़ के कुछ भागों को काटकर एक नया जिला
चंपावत बनाया गया तथा इसकी सीमा को पुनर्निर्धारित कर दिया गया। वर्ष २००० में
पिथौरागढ़ नये राज्य उत्तराखण्ड का एक भाग बन गया।
टिहरी और गढ़वाल दो अलग नामों को मिलाकर
इस जिले का नाम रखा गया है। जहाँ टिहरी बना है शब्द ‘त्रिहरी’ से, जिसका अर्थ है एक ऐसा स्थान जो तीन
प्रकार के पाप (जो जन्मते है मनसा, वचना, कर्मा से) धो देता है वहीं दूसरा शब्द
बना है ‘गढ़’ से, जिसका मतलब होता है किला।
सन् 1888 से पूर्व सारा गढ़वाल क्षेत्र
छोटे छोटे ‘गढ़ों’ में विभाजित था,
जिनमें अलग-अलग राजा
राज्य करते थे जिन्हें ‘राणा’, ‘राय’ या ‘ठाकुर’ के नाम से जाना जाता था। ऐसा कहा जाता
है कि मालवा के राजकुमार कनकपाल एक बार बद्रीनाथ जी (जो वर्तमान चमोली जिले में
है) के दर्शन को गये जहाँ वो पराक्रमी राजा भानु प्रताप से मिले। राजा भानु प्रताप
उनसे काफी प्रभावित हुए और अपनी इकलौती बेटी का विवाह कनकपाल से करवा दिया साथ ही
अपना राज्य भी उन्हें दे दिया। धीरे-धीरे कनकपाल और उनकी आने वाली पीढ़ियाँ
एक-एक कर सारे गढ़ जीत कर अपना राज्य बड़ाती गयीं। इस प्रकार सन् १८०३ तक सारा
(९१८ वर्षों में) गढ़वाल क्षेत्र इनके अधिकार में आ गया। उन्ही वर्षों में
गोरखाओं के असफल हमले (लंगूर गढ़ी को अधिकार में लेने का प्रयास) भी होते रहे, लेकिन
सन् १८०३ में आखिर देहरादून की एक लड़ाई में गोरखाओं की विजय हुई जिसमें राजा
प्रद्वमुन शाह मारे गये। लेकिन उनके शाहजादे (सुदर्शन शाह) जो उस समय छोटे थे
वफादारों के हाथों बचा लिये गये।
धीरे-धीरे गोरखाओं का प्रभुत्व बढ़ता
गया और इन्होनें लगभग १२ वर्षों तक राज किया। इनका राज्य कांगड़ा तक फैला हुआ था, फिर
गोरखाओं को महाराजा रणजीत सिंह ने कांगड़ा से निकाल बाहर किया। और इधर सुदर्शन शाह
ने इस्ट इंडिया कम्पनी की मदद से गोरखाओं से अपना राज्य पुनः छीन लिया।
ईस्ट इण्डिया कंपनी ने फिर कुमाऊँ, देहरादून
और पूर्व गढ़वाल को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दिया और पश्चिम गढ़वाल राजा
सुदर्शन शाह को दे दिया जिसे तब टेहरी रियासत के नाम से जाना गया। राजा सुदर्शन
शाह ने अपनी राजधानी टिहरी या टेहरी नगर को बनाया, बाद में उनके उत्तराधिकारी प्रताप शाह, कीर्ति
शाह और नरेन्द्र शाह ने इस राज्य की राजधानी क्रमशः प्रताप नगर, कीर्ति
नगर और नरेन्द्र नगर स्थापित की। इन तीनों ने १८१५ से सन् १९४९ तक राज किया। तब
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान यहाँ के लोगों ने भी बहुत बढ़चढ़ कर भाग लिया।
स्वतन्त्रता के बाद, लोगों के मन में भी राजाओं के शासन से
मुक्त होने की इच्छा बलवती होने लगी। महाराजा के लिये भी अब राज करना कठिन होने
लगा था। और फिर अंत में ६० वें राजा मानवेन्द्र
शाह ने भारत के साथ एक हो जाना स्वीकर कर लिया। इस प्रकार सन् १९४९ में टिहरी
राज्य को उत्तर प्रदेश में मिलाकर इसी नाम का एक जिला बना दिया गया। बाद में २४
फ़रवरी १९६० में उत्तर प्रदेश सरकार ने इसकी एक तहसील को अलग कर उत्तरकाशी नाम का
एक ओर जिला बना दिया।
मई १९३८ में तत्कालीन ब्रिटिश शासन में गढ़वाल के श्रीनगर में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने
इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को अपनी परिस्थितियों के अनुसार स्वयं निर्णय
लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध करकने के आंदोलन का समर्थन किया। एक नए राज्य के
रुप में उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के फलस्वरुप (उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, २०००)
उत्तराखण्ड की स्थापना ९ नवम्बर २००० को हुई। इसलिए इस दिन को उत्तराखण्ड में
स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता है।
वर्ष १९५७ में योजना आयोग के उपाध्यक्ष
टी.टी. कृष्णम्माचारी ने पर्वतीय क्षेत्र की समस्याओं के निदान के लिये विशेष
ध्यान देने का सुझाव दिया। १२ मई १९७० को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा
पर्वतीय क्षेत्र की समस्याओं का निदान राज्य तथा केन्द्र सरकार का दायित्व होने की
घोषणा की गई और २४ जुलाई १९७९ को पृथक राज्य के गठन के लिये मसूरी में उत्तराखण्ड
क्रान्ति दल की स्थापना की गई। जून १९८७ में कर्णप्रयाग के सर्वदलीय सम्मेलन में
उत्तराखण्ड के गठन के लिये संघर्ष का आह्वान किया तथा नवंबर १९८७ में पृथक
उत्तराखण्ड राज्य के गठन के लिये नई दिल्ली में प्रदर्शन और राष्ट्रपति को ज्ञापन
एवं हरिद्वार को भी प्रस्तावित राज्य में सम्मिलित करने की माँग की गई।
१९९४ उत्तराखण्ड राज्य एवं आरक्षण को
लेकर छात्रों ने सामूहिक रूप से आन्दोलन किया। मुलायम सिंह यादव के उत्तराखण्ड
विरोधी वक्तव्य से क्षेत्र में आन्दोलन तेज हो गया। उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के
नेताओं ने अनशन किया। उत्तराखण्ड में सरकारी कर्मचारी पृथक राज्य की माँग के
समर्थन में लगातार तीन महीने तक हड़ताल पर रहे तथा उत्तराखण्ड में चक्काजाम और
पुलिस फायरिंग की घटनाएँ हुईं। उत्तराखण्ड आन्दोलनकारियों पर मसूरी और खटीमा में
पुलिस द्वारा गोलियाँ चलाईं गईं। संयुक्त मोर्चा के तत्वाधान में २ अक्टूबर, १९९४
को दिल्ली में भारी प्रदर्शन किया गया। इस संघर्ष में भाग लेने के लिये उत्तराखण्ड
से हज़ारों लोगों की भागीदारी हुई। प्रदर्शन में भाग लेने जा रहे आन्दोलनकारियों
को मुजफ्फर नगर में बहुत प्रताड़ित किया गया और उन पर पुलिस ने गोलीबारी की और
लाठियाँ बरसाईं तथा महिलाओं के साथ अश्लील व्यवहार और अभद्रता की गयी। इसमें अनेक
लोग हताहत और घायल हुए। इस घटना ने उत्तराखण्ड आन्दोलन की आग में घी का काम किया।
अगले दिन तीन अक्टूबर को इस घटना के विरोध में उत्तराखण्ड बंद का आह्वान किया गया जिसमें
तोड़फोड़ गोलीबारी तथा अनेक मौतें हुईं।
७ अक्टूबर, १९९४ को देहरादून में एक महिला
आन्दोलनकारी की मृत्यु हो हई इसके विरोध में आन्दोलनकारियों ने पुलिस चौकी पर
उपद्रव किया।
१५ अक्टूबर को देहरादून में कर्फ़्यू लग
गया और उसी दिन एक आन्दोलनकारी शहीद हो गया।
२७ अक्टूबर, १९९४ को देश के तत्कालीन गृहमंत्री
राजेश पायलट की आन्दोलनकारियों की वार्ता हुई। इसी बीच श्रीनगर में श्रीयंत्र टापू
में अनशनकारियों पर पुलिस ने बर्बरतापूर्वक प्रहार किया जिसमें अनेक आन्दोलनकारी
शहीद हो गए।
राज्य आन्दोलन की घटनाएँ
उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन में बहुत सी
हिंसक घटनाएँ भी हुईं जो इस प्रकार हैं:
खटीमा गोलीकाण्ड
१ सितंबर, १९९४ को उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन का
काला दिन माना जाता है, क्योंकि इस दिन की जैसी पुलिस बर्बरता
की कार्यवाही इससे पहले कहीं और देखने को नहीं मिली थी। पुलिस द्वारा बिना चेतावनी
दिये ही आन्दोलनकारियों के ऊपर अंधाधुंध फायरिंग की गई, जिसके परिणामस्वरुप सात आन्दोलनकारियों
की मृत्यु हो गई। मारे गए लोगों के नाम हैं:
अमर शहीद स्व० भगवान सिंह सिरौला, ग्राम
श्रीपुर बिछुवा, खटीमा।
अमर शहीद स्व० प्रताप सिंह, खटीमा।
अमर शहीद स्व० सलीम अहमद, खटीमा।
अमर शहीद स्व० गोपीचन्द, ग्राम-रतनपुर
फुलैया, खटीमा।
अमर शहीद स्व० धर्मानन्द भट्ट, ग्राम-अमरकलां, खटीमा
अमर शहीद स्व० परमजीत सिंह, राजीवनगर, खटीमा।
अमर शहीद स्व० रामपाल, निवासी-बरेली।
अमर शहीद स्व० श्री भगवान सिंह सिरोला।
इस पुलिस फायरिंग में बिचपुरी निवासी
श्री बहादुर सिंह, श्रीपुर बिछुवा के पूरन चन्द्र भी गंभीर
रुप से घायल हुये थे।
मसूरी गोलीकाण्ड[संपादित करें]
२ सितंबर, १९९४ को खटीमा गोलीकाण्ड के विरोध में
मौन जुलूस निकाल रहे लोगों पर एक बार फिर पुलिसिया कहर टूटा। प्रशासन से बातचीत
करने गई दो सगी बहनों को पुलिस ने झूलाघर स्थित आन्दोलनकारियों के कार्यालय में
गोली मार दी। इसका विरोध करने पर पुलिस द्वारा अंधाधुंध फायरिंग कर दी गई, जिसमें
कई लोगों को (लगभग २१) गोली लगी और इसमें से तीन आन्दोलनकारियों की अस्पताल में
मृत्यु हो गई।
मसूरी गोलीकाण्ड में शहीद लोगः
अमर शहीद स्व० बेलमती चौहान (४८), पत्नी
श्री धर्म सिंह चौहान, ग्राम-खलोन, पट्टी घाट, अकोदया, टिहरी।
अमर शहीद स्व० हंसा धनई (४५), पत्नी
श्री भगवान सिंह धनई, ग्राम-बंगधार, पट्टी धारमंडल,
टिहरी।
अमर शहीद स्व० बलबीर सिंह (२२), पुत्र
श्री भगवान सिंह नेगी, लक्ष्मी मिष्ठान्न, लाइब्रेरी, मसूरी।
अमर शहीद स्व० धनपत सिंह (५०), ग्राम-गंगवाड़ा, पट्टी-गंगवाड़स्यू, गढ़वाल।
अमर शहीद स्व० मदन मोहन ममगई (४५), नागजली, कुलड़ी, मसूरी।
अमर शहीद स्व० राय सिंह बंगारी (५४), ग्राम
तोडेरा, पट्टी-पूर्वी भरदार, टिहरी।
मुजफ्फरनगर (रामपुर तिराहा)
गोलीकाण्ड[संपादित करें]
मुख्य लेख : रामपुर तिराहा गोली काण्ड
२ अक्टूबर १९९४ की रात्रि को दिल्ली
रैली में जा रहे आन्दोलनकारियों का रामपुर तिराहा, मुजफ्फरनगर में पुलिस-प्रशासन ने जैसा
दमन किया, उसका उदारहण किसी भी लोकतान्त्रिक देश तो क्या किसी तानाशाह ने
भी आज तक दुनिया में नहीं दिया कि निहत्थे आन्दोलनकारियों को रात के अन्धेरे में
चारों ओर से घेरकर गोलियां बरसाई गई और पहाड़ की सीधी-सादी महिलाओं के साथ
दुर्व्यवहार तक किया गया। इस गोलीकाण्ड में राज्य के ७ आन्दोलनकारी शहीद हो गये
थे। इस गोली काण्ड के दोषी आठ पुलिसवालों पर्, जिनमे तीन इंस्पै़क्टर भी हैं, पर
मामला चलाया जा रहा है।[1]
शहीदों के नाम:
अमर शहीद स्व० सूर्यप्रकाश थपलियाल (२०), पुत्र
श्री चिंतामणि थपलियाल, चौदहबीघा, मुनि की रेती, ऋषिकेश।
अमर शहीद स्व० राजेश लखेड़ा (२४), पुत्र
श्री दर्शन सिंह लखेड़ा, अजबपुर कलां, देहरादून।
अमर शहीद स्व० रविन्द्र सिंह रावत (२२), पुत्र
श्री कुंदन सिंह रावत, बी-२०, नेहरु कालोनी, देहरादून।
अमर शहीद स्व० राजेश नेगी (२०), पुत्र
श्री महावीर सिंह नेगी, भानिया वाला, देहरादून।
अमर शहीद स्व० सतेन्द्र चौहान (१६), पुत्र
श्री जोध सिंह चौहान, ग्राम हरिपुर, सेलाकुईं, देहरादून।
अमर शहीद स्व० गिरीश भद्री (२१), पुत्र
श्री वाचस्पति भद्री, अजबपुर खुर्द, देहरादून।
अमर शहीद स्व० अशोक कुमारे कैशिव, पुत्र
श्री शिव प्रसाद, मंदिर मार्ग, ऊखीमठ, रुद्रप्रयाग।
देहरादून गोलीकाण्ड[संपादित करें]
३ अक्टूबर, १९९४ को मुजफ्फरनगर काण्ड की सूचना
देहरादून में पहुंचते ही लोगों का उग्र होना स्वाभाविक था। इसी बीच इस काण्ड में
शहीद स्व० श्री रविन्द्र सिंह रावत की शवयात्रा पर पुलिस के लाठीचार्ज के बाद
स्थिति और उग्र हो गई और लोगों ने पूरे देहरादून में इसके विरोध में प्रदर्शन किया, जिसमें
पहले से ही जनाक्रोश को किसी भी हालत में दबाने के लिये तैयार पुलिस ने फायरिंग कर
दी, जिसने तीन और लोगों को इस आन्दोलन में शहीद कर दिया।
मारे गए लोगों के नामः
अमर शहीद स्व० बलवन्त सिंह सजवाण (४५), पुत्र
श्री भगवान सिंह, ग्राम-मल्हान, नयागांव, देहरादून।
अमर शहीद स्व० राजेश रावत (१९), पुत्र
श्रीमती आनंदी देवी, २७-चंदर रोड, नई बस्ती, देहरादून।
अमर शहीद स्व० दीपक वालिया (२७), पुत्र
श्री ओम प्रकाश वालिया, ग्राम बद्रीपुर,
देहरादून।
स्व० राजेश रावत की मृत्यु तत्कालीन
[सपा] नेता सूर्यकांत धस्माना के घर से हुई फायरिंग में हुई थी।
कोटद्वार काण्ड[संपादित करें]
३ अक्टूबर १९९४ को पूरा उत्तराखण्ड
मुजफ्फरनगर काण्ड के विरोध में उबला हुआ था और पुलिस-प्रशासन इनके किसी भी प्रकार
से दमन के लिये तैयार था। इसी कड़ी में कोट्द्वार में भी आन्दोलन हुआ, जिसमें
दो आन्दोलनकारियों को पुलिस कर्मियों द्वारा राइफल के बटों व डण्डों से पीट-पीटकर
मार डाला।
कोटद्वार में शहीद आन्दोलनकारी:
अमर शहीद स्व० श्री राकेश देवरानी।
अमर शहीद स्व० श्री पृथ्वी सिंह बिष्ट, मानपुर, कोटद्वार।
नैनीताल गोलीकाण्ड[संपादित करें]
नैनीताल में भी विरोध चरम पर था, लेकिन
इसका नेतृत्व बुद्धिजीवियों के हाथ में होने के कारण पुलिस कुछ कर नहीं पाई, लेकिन
इसकी भड़ास उन्होने निकाली प्रशान्त होटल में काम करने वाले प्रताप सिंह के ऊपर।
आर०ए०एफ० के सिपाहियों ने इसे होटल से खींचा और जब यह बचने के लिये मेघदूत होटल की
तरफ भागा, तो इनकी गर्दन में गोली मारकर हत्या कर दी गई।
नैनीताल गोलीकांड में शहीद लोगः
अमर शहीद स्व० श्री प्रताप सिंह।
श्रीयंत्र टापू (श्रीनगर) काण्ड[संपादित
करें]
श्रीनगर कस्बे से २ कि०मी० दूर स्थित
श्रीयन्त्र टापू पर आन्दोलनकारियों ने ७ नवंबर, १९९४ से इन सभी दमनकारी घटनाओं के विरोध
और पृथक उत्तराखण्ड राज्य हेतु आमरण अनशन आरम्भ किया। १० नवंबर, १९९४
को पुलिस ने इस टापू में पहुँचकर अपना कहर बरपाया, जिसमें कई लोगों को गम्भीर चोटें भी आई, इसी
क्रम में पुलिस ने दो युवकों को राइफलों के बट और लाठी-डण्डों से मारकर अलकनन्दा
नदी में फेंक दिया और उनके ऊपर पत्थरों की बरसात कर दी, जिससे इन दोनों की मृत्यु हो गई।
श्रीयन्त्र टापू के शहीद लोगः
अमर शहीद स्व० श्री राजेश रावत।
अमर शहीद स्व० श्री यशोधर बेंजवाल।
इन दोनों शहीदों के शव १४ नवंबर, १९९४
को बागवान के समीप अलकनन्दा में तैरते हुये पाये गये थे।
१५ अगस्त, १९९६ को तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा ने उत्तराखण्ड राज्य की घोषणा लालकिले से की।
१९९८ में केन्द्र की भाजपा गठबंधन सरकार ने पहली बार राष्ट्रपति के माध्यम से उ.प्र. विधानसभा को उत्तरांचल विधेयक भेजा। उ.प्र. सरकार ने २६ संशोधनों के साथ उत्तरांचल राज्य विधेयक विधान सभा में पारित करवाकर केन्द्र सरकार को भेजा।
केन्द्र सरकार ने २७ जुलाई, २००० को उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक २००० को लोकसभा में प्रस्तुत किया जो १ अगस्त, २००० को लोकसभा में तथा १० अगस्त, २००० अगस्त को राज्यसभा में पारित हो गया।
भारत के राष्ट्रपति ने उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक को २८ अगस्त, २००० को अपनी स्वीकृति दे दी और इसके बाद यह विधेयक अधिनियम में बदल गया और इसके साथ ही ९ नवम्बर २००० को उत्तरांचल राज्य अस्तित्व मे आया जो अब उत्तराखण्ड नाम से अस्तित्व में है।
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शनिवार, 8 नवंबर 2014
"राज्य स्थापना दिवस और उत्तराखण्ड का इतिहास" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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