बलखाती-लहराती उमड़ी, पर्वत से जल धारा।
मैदानों पर आकर, उसने चंचल “रूप” सँवारा।।
बहती है उन्मुक्त भाव से, अपनी राह बनाती,
कलकल-छलछल करती, सबको मधुरिम राग सुनाती,
नदिया ने सिखलाया जग को, चरैवेति का नारा।
मैदानों पर आकर, उसने चंचल “रूप” सँवारा।।
जब-जब कदम बढ़ाता राही, आगे को बढ़ जाता,
तालाबों का नीर, पंक के साथ सदा सड़ जाता,
बैठे-ठाले नहीं किसी को, देता कोई सहारा।
मैदानों पर आकर, उसने चंचल “रूप” सँवारा।।
बिना नेह के सूखी बाती, कभी नहीं जलती है,
साहस-श्रम से ही तो, जीवन की नौका चलती है,
नाविक की पतवार चली, तो आया पास किनारा।
मैदानों पर आकर, उसने चंचल “रूप” सँवारा।।
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मंगलवार, 4 नवंबर 2014
"गीत-उमड़ी पर्वत से जल धारा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह बहुत सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति ...बधाई स्वीकारें...
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंतुझे मना लूँ प्यार से !
इतनी सुन्दर सार्थक अभिव्यक्ति ,बेहतरीन
जवाब देंहटाएंBahut sunder abhivyakti !!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति...
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