दोहों में यदि आपके, होगी पैनी धार।
निश्चित वो कर जायेंगे, दिल पर सीधा वार।१।
--
कम शब्दों में जो करें, अपना सीधा काम।
इसीलिए है सार्थक, इनका दोहा नाम।२।
--
तुलसीदास-कबीर ने, बाँटा इनसे ज्ञान।
साथ बिहारीलाल के, रहिमन चतुर सुजान।३।
--
जब भी दोहों को रचो, गण का रखना ध्यान।
तेरह-ग्यारह पर टिका, दोहों का विज्ञान।३।
--
सरल मात्रिकछन्द है, करो तनिक अभ्यास।
शब्दों को चुन कर करो, दोहों का विन्यास।४।
--
दोहों के व्यामोह में, गया ग़ज़ल मैं भूल।
अन्य विधाओं का अभी, समय नहीं अनुकूल।५।
--
खाली गया न आज तक, कभी शब्द का वार।
शब्दों के आगे कभी, नहीं चली तलवार।६।
--
इन्द्रधनुष जैसे लगें, दोहों के सब रंग।
गाते इनको प्रेम से, सन्त-मलंग-निहंग।७।
--
प्यार भरे सब गीत हों, प्यारा हो संगीत।
मिल जायें बिछुड़े हुए, सबको प्यारे मीत।८।
--
मन में हो सच्ची लगन, निष्ठा भी हो साथ।
दोहों में विश्वास से, कहना मन की बात।९।
|
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गुरुवार, 30 अप्रैल 2015
"दोहे पर दोहे" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मंगलवार, 28 अप्रैल 2015
दो मुक्तक "पेड़ को देते चुनौती आजकल बौने शज़र" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बाँटते
उपदेश लेकिन, आचरण होता नहीं।
भावना के साथ
में, अन्तःकरण होता नहीं।
देख कर इस
दुर्दशा को, दुःख होता है बहुत,
है नयी
कविता, मगर कुछ व्याकरण होता नहीं।।
--
पेड़ को देते
चुनौती, आजकल बौने शज़र।
नासमझ भोले पतिंगे, मानते खुद को अजर।
सामने कुछ और
हैं, पर पीठ पीछे और कुछ,
भीड़ में हमदर्द
तो, आता नहीं कोई नज़र।।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
|
गीत "धूप में घर सब बनाना जानते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
वेदना के "रूप" को
पहचानते हैं।
धूप में घर सब बनाना जानते
हैं।।
भावनाओं पर कड़ा पहरा रहा,
दुःख से नाता बड़ा गहरा रहा,
मीत इनको ज़िन्दग़ी का मानते
हैं।
धूप में घर सब बनाना जानते हैं।।
काल का तो चक्र चलता जा रहा है
वक़्त ऐसे ही निकलता जा
रहा,
ख़ाक क्यों दरबार की हम छानते
हैं।
धूप में घर सब बनाना जानते हैं।।
शूल के ही साथ रहते फूल हैं,
एक दूजे के लिए अनुकूल हैं,
बैर काँटों से नहीं हम ठानते
हैं।
धूप में घर सब बनाना जानते
हैं।।
“रूप” तो इक रोज़ ढल ही जायेगा,
आँच में शीशा पिघल ही जायेगा,
तीर खुद पर किसलिए हम तानते
हैं।
धूप में घर सब बनाना जानते हैं।।
|
सोमवार, 27 अप्रैल 2015
दोहे "श्रद्धा सुमन, देता है कविराय" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
धरती पर भूकम्प से, हुआ हाल-बेहाल।
विपदाओं में घिरा है, आज देश नेपाल।।
--
क्रोधित पशुपतिनाथ ने, प्रकट किया है कोप।
पलक झपकते ही हुआ, दृश्य सुहाना लोप।।
--
कंकरीट के पौध से, सहमा हुआ पहाड़।
कुदरत ने ये देखकर, दिये मकान उजाड़।।
--
भौगोलिक परिवेश का, होता यदि निर्माण।
कभी न होता तब यहाँ, जीवन का निर्वाण।।
--
छेड़-छाड़ होगी कभी, जब कुदरत के साथ।
अपना धर्म निभायेंगे, तब-तब भोलेनाथ।।
--
कुछ तो सीख विनाश से, समझ आज संकेत।
माटी में मिल जायेंगे, कंकरीट के खेत।।
--
आज काल के ग्रास में, जो भी गये समाय।
उन सबको श्रद्धा सुमन, देता है कविराय।।
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रविवार, 26 अप्रैल 2015
गीत "कौन सुनेगा सरगम के सुर" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मीठे
सुर में गाकर कोयल, क्यों तुम समय गँवाती हो?
कौन
सुनेगा सरगम के सुर, किसको गीत सुनाती हो?
बाज और
बगुलों ने सारे, घेर लिए हैं बाग अभी,
खारे
सागर के पानी में, नहीं गलेगी दाल कभी,
पेड़ों
की झुरमुट में बैठी, किसकी आस लगाती हो?
कौन
सुनेगा सरगम के सुर, किसको गीत सुनाती हो?
चील
जहाँ पर आस-पास ही, पूरे दिन मंडराती हैं,
नोच-नोच
कर मरे मांस को, दिनभर खाती जाती हैं,
जो
स्वछन्द हो चुके, उन्हें क्यों लोकतन्त्र सिखलाती हो?
कौन
सुनेगा सरगम के सुर, किसको गीत सुनाती हो?
जो जग
को भा जाये, वही भाषा सच्ची कहलाती है,
सीधी-सच्ची
भाषा ही तो, सबका मन बहलाती है,
अपनी
मीठी वाणी से तुम, सबका दिल बहलाती हो।
कौन
सुनेगा सरगम के सुर, किसको गीत सुनाती हो?
तन हो
भले तुम्हारा काला, सुर तो बहुत सुरीला है,
देखा जिनका
“रूप” सलोना, उनका मन जहरीला है,
गूँगे-बहरों की महफिल में, क्यों
इतना चिल्लाती हो?
कौन
सुनेगा सरगम के सुर, किसको गीत सुनाती हो?
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दोहे "धरती और पहाड़ पर, है कुदरत की मार" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
वसुन्धरा कैसे सजे,
भर सोलह
सिंगार।
धरती और पहाड़ पर,
है कुदरत की
मार।।
--
आदिकाल से चल रहा,
कुदरत का यह
खेल।
मानव सब कुछ जानकर,
बोता विष की
बेल।।
--
सब अपने को कर रहे,
सच्चा सेवक
सिद्ध।
मांस नोचने के लिए,
फिर मंडराये
गिद्ध।।
--
सबको अपनी ही पड़ी,
जाये भाड़
में देश।
जनता का धन खा रहे,
भरकर उजले
भेष।।
--
कैसे श्रद्धासुमन मैं,
करूँ
समर्पित आज।
ठोकर खाकर भी नहीं,
सुधरा
देश-समाज।।
|
शनिवार, 25 अप्रैल 2015
गीत "अमलतास के पीले गजरे" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
अमलतास के पीले गजरे, झूमर से लहराते हैं।
लू के गर्म थपेड़े खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।।
ये मौसम की मार, हमेशा खुश हो कर सहते हैं,
दोपहरी में क्लान्त पथिक को, छाया देते रहते हैं,
सूरज की भट्टी में तपकर, कंचन से हो जाते हैं।
लू के गर्म थपेड़े खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।।
उछल-कूद करते मस्ती में, गिरगिट और गिलहरी भी,
वासन्ती आभास कराती, गरमी की दोपहरी भी,
प्यारे-प्यारे सुमन प्यार से, आपस में बतियाते हैं।
लू के गर्म थपेड़े खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।।
लुभा रहे सबके मन को, जो आभूषण तुमने पहने,
अमलतास तुम धन्य, तुम्हें कुदरत ने बख्शे हैं गहने,
सड़क किनारे खड़े तपस्वी, अभिनव “रूप” दिखाते हैं।
लू के गर्म थपेड़े खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।।
|
शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015
दोहे "जितना चाहूँ भूलना उतनी आती याद" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
तारतम्य टूटा हुआ, उलझ गये हैं तार।
जाने कब मिले पायेगा, शब्दों को आकार।।
--
अब मेरे सिर पर नहीं, माँ का प्यारा हाथ।
माँ जब से है चल बसी, मैं हो गया अनाथ।।
--
कदम-कदम पर घेरते, मुझको झंझावात।
समझ अकेला कर रहे, घात और प्रतिघात।।
--
पलभर में ही हो गया, जीवन का निर्वाण।
माँ ने मेरी गोद मॆं, छोड़े अपने प्राण।।
--
कहने को सँग-साथ में, पूरा है परिवार।
मगर न वो दे पायेंगे, माता जैसा प्यार।।
--
माँ के जाने पर मुझे, गहरा है अवसाद।
जितना चाहूँ भूलना, उतनी आती याद।
--
अजर-अमर है आत्मा, लेगी जन्म जरूर।
महकाना संसार को, जैसे गन्ध कपूर।।
--
घी-सामग्री भार से, कहीं अधिक थी मात।
छः कुण्टल समिधाओं से, होम किया तव गात।।
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पूरी श्रद्धा से किये, माँ मैंने सब कर्म।
क्षमा मुझे करना अगर, भूला हूँ कुछ धर्म।।
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