सिसक-सिसक कर स्लेट जी रही, तख्ती ने दम तोड़ दिया है। सुन्दर लेख-सुलेख नहीं है, कलम टाट का छोड़ दिया है।। दादी कहती एक कहानी, बीत गई सभ्यता पुरानी, लकड़ी की पाटी होती थी, बची न उसकी कोई निशानी।। फाउण्टेन-पेन गायब हैं, जेल पेन फल-फूल रहे हैं। रीत पुरानी भूल रहे हैं, नवयुग में सब झूल रहे हैं।। समीकरण सब बदल गये हैं, शिक्षा का पिट गया दिवाला। बिगड़ गये परिवेश प्रीत के, बिखर गई है मंजुल माला।। |
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गुरुवार, 6 सितंबर 2018
"स्लेट और तख्ती" (प्रकाशन जयविजय-सितम्बर,2018)
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बहुत अच्छी बाल रचना
जवाब देंहटाएंसमय के साथ कितना कुछ बदल जाएगा, कोई नहीं जानता
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआदरणीय महोदय जी मैंने आपको अपना Gmail के माध्यम से जुड़ने के लिए मेल किया था , परंतु अभी तक आपकी तरफ से कोई प्रतिउत्तर नहु मिली ।
जवाब देंहटाएं����..
विराट