नूतन छन्दों का मुझे, दो अभिनव उपहार।।
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तुक-लय-गति का है नहीं, मुझको कुछ भी ज्ञान।
मेधावी मुझको करो, मैं मूरख नादान।।
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सच्चे मन से आपका, करता हूँ मैं ध्यान।
शब्दों को पहनाइए, माँ निर्मल परिधान।।
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गीत-ग़ज़ल-दोहे लिखूँ, लिखूँ बाल साहित्य।
माता मेरे सृजन में, भर देना लालित्य।।
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लिखने वाली आप हो, मैं हूँ मात्र निमित्त।
पावन करना चित्त को, नहीं चाहिए वित्त।।
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बैठक में अज्ञान की, पसरी हुई जमात।
विद्वानों को हाँकते, अब धनवान बलात।।
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देवी हो माँ ज्ञान की, ऐसे करो उपाय।
साधक वीणापाणि के, कभी न हों असहाय।।
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जगत गुरू बन जाय फिर, अपना प्यारा देश।।
वीणा की झंकार से, पावन हो परिवेश।।
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शुक्रवार, 28 सितंबर 2018
वन्दना के दोहे "पावन हो परिवेश" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह वाह
जवाब देंहटाएंजय माँ वीणावादिनी
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंउम्दा
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंलिखने वाली आप हो, मैं हूँ मात्र निमित्त।
जवाब देंहटाएंपावन करना चित्त को, नहीं चाहिए वित्त।।
न हम किया न करेंगे ,न किछु करे शरीर ,
जो कुछ किया सो तुम किया ,हुआ कबीर कबीर।
वंदना के स्वर तुम्हारे ,राग शब्द अउरु भाव सारे ,
सब तुम्हारे सब तुम्हारे ,.....
nanakjio.blogspot.com
veerubhai1947.blogspot.com
जवाब देंहटाएंलिखने वाली आप हो, मैं हूँ मात्र निमित्त।
पावन करना चित्त को, नहीं चाहिए वित्त।।
न हम किया न करेंगे ,न किछु करे शरीर ,
जो कुछ किया सो तुम किया ,हुआ कबीर कबीर।
वंदना के स्वर तुम्हारे ,राग शब्द अउरु भाव सारे ,
सब तुम्हारे सब तुम्हारे ,.....
बे -जोड़ भाव गंगा शास्त्री जी अहम मुक्त भाव पूरित।
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