मिट्टी के लड़डू
मिले, कंकड़ वाली दाल।
शुद्ध पेय जल के बिना, जीना हुआ मुहाल।।
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दाँव-पेंच के खेल
में, पग-पग पर हैं जाल।
करें आचमन अब
कहाँ, गंगा है बदहाल।।
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वचनबद्ध कोई नहीं,
दावों में है खोट।
साम-दाम, छल-छद्म
से, हाँसिल करते वोट।।
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मतलब के कारण हुए,
साँप-नेवले साथ।
बने हुए हैं नाथ
वो, जो थे कभी अनाथ।।
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पण्डित जी के जाल
में, फँसा हुआ यजमान।
नहीं सियासत में बचा,
धर्म और ईमान।।
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सूख रहे हैं देश में,
नदी सरोवर-ताल।
नेह नहीं है दिलों
में, हालत है विकराल।।
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अन्धकार का राज है, उल्लू की परवाज।
आसन पर आसीन है,
अब तो कुश्तीबाज।
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सोमवार, 6 मई 2019
दोहे "उल्लू की परवाज" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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