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KIN A POEM:
Carl Sandburg
(अनुवादक-डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सागरतल की गहराई में
ज्वाला बनकर धधक रही
हूँ,
हुए हजारों साल, आज भी
मैं वैसे ही भभक रही
हूँ,
मत छूना मुझको ऐ भाई!
अपना धर्म नहीं
छोड़ूँगी,
मेरा नाम आग है भाई!
मैं नही शीतलता ओढ़ूँगी,
मुझे परिधि में सीमित
रखकर,
कैद कभी नही कर पाओगे,
कितने ही प्रयत्न करो, पर
गोदी में नही भर पाओगे,
अगर बदलना चाहो तो, तुम
खुद को बदलो ऐ भाई!
मेरा करो प्रयोग-भोग पर,
मैं नही बदलूँगी भाई!
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बुधवार, 29 मई 2019
“KIN A POEM : CARL STANDBURG” (अनुवादक-डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 30.5.19 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3351 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
आग से शीतलता की आस ही क्यो?
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना