जिन्दगी है तो उलझन-झमेले भी हैं। वेदनाएँ भी हैं सुख के मेले भी हैं।।
आसमाँ भी नही और धरा भी नही, जिन्दगी में भरे खेल-खेले भी है। वेदनाएँ भी हैं सुख के मेले भी हैं।।
एक तन भी मिला एक मन भी मिला, शुद्ध भी है बहुत और मैले भी हैं। वेदनाएँ भी हैं सुख के मेले भी हैं।।
दान है पुण्य है साथ में लोभ है, सद्-गुरू, ज्ञान है और चेले भी हैं। वेदनाएँ भी हैं सुख के मेले भी हैं।।
प्रीत है मीत है और दंगल भी हैं, कुछ शहद से भरे कुछ विषैले भी हैं। वेदनाएँ भी हैं सुख के मेले भी हैं।। |
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"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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शुक्रवार, 31 जुलाई 2009
‘‘वेदनाएँ भी हैं सुख के मेले भी हैं।’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
गुरुवार, 30 जुलाई 2009
‘‘वक्त के साथ सारे बदल जायेंगे।’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
रंग भी रूप भी छाँव भी धूप भी, देखते-देखते ही तो ढल जायेंगे। देश भी भेष भी और परिवेश भी, वक्त के साथ सारे बदल जायेंगे।।
जग में आकर सभी हैं जगाते अलख, प्रीत भी रीत भी, शब्द भी गीत भी, एक न एक दिन तो मचल जायेंगे। वक्त के साथ सारे बदल जायेंगे।।
याद रक्खेंगे हम तो सदा ही तुम्हें, तंग दिल मत बनो, संगे दिल मत बनो, पत्थरों में से धारे निकल आयेंगे। वक्त के साथ सारे बदल जायेंगे।।
याद आता दुखों में ही भगवान है, दो कदम तुम बढ़ो, दो कदम हम बढ़ें, रास्ते मंजिलों से ही मिल जायेंगे। वक्त के साथ सारे बदल जायेंगे।।
पथ बुलाता तुम्हें रोशनी से भरा, हार को छोड़ दो, जीत को ओढ़ लो, फूल फिर से बगीचे में खिल जायेंगे। वक्त के साथ सारे बदल जायेंगे।। |
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बुधवार, 29 जुलाई 2009
‘‘आ गई वर्षा हमारे आज द्वारे’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
मंगलवार, 28 जुलाई 2009
‘‘हसीन ख्वाब’’ (डा0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
इक हादसे में उनसे मुलाकात हो गयी। रोज-रोज मिलने की शुरूआत हो गई।। देखा उन्हें मगर न कोई बात कर सके, केवल नजर मिली, नजर में बात हो गयी। रोज-रोज मिलने की शुरूआत हो गई।। वो भी थे बेकरार और हम भी थे गरजमन्द, दोनो के लिए प्रेम की सौगात हो गयी। रोज-रोज मिलने की शुरूआत हो गई।। इक दूजे के जज्बात दोनो तोलते रहे, हम डाल-डाल थे वो पात-पात हो गयी। रोज-रोज मिलने की शुरूआत हो गई।। खाई थी खेल में उन्होंने शह हजार बार, जब अन्त आ गया तो मेरी मात हो गई। रोज-रोज मिलने की शुरूआत हो गई।। धूप-छाँव के चले थे सिलसिले बहुत, मंजिल के बीच में ही तो बरसात हो गई। रोज-रोज मिलने की शुरूआत हो गई।। साया तलाशते रहे हम तो तमाम दिन, केवल इसी उधेड़-बुन में रात हो गई। रोज-रोज मिलने की शुरूआत हो गई।। आँखें खुली हसीन ख्वाब टूट गया था, सूरज चढ़ा हुआ था और प्रात हो गई। रोज-रोज मिलने की शुरूआत हो गई।। |
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‘‘काले बादल बरस रहे हैं’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
गरज रहे हैं, लरज रहे हैं, काले बादल बरस रहे हैं। कल तक तो सावन सूखा था, धरती का तन-मन रूखा था, आज झमा-झम बरस रहे हैं। काले बादल बरस रहे हैं।। भीग रहे हैं आँगन-उपवन, तृप्त हो रहे खेत, बाग, वन, उमड़-घुमड़ घन बरस रहे हैं। काले बादल बरस रहे हैं।। मुन्ना भीगा, मुन्नी भीगी, गोरी की है चुन्नी भीगी, जोर-शोर से बरस रहे हैं। काले बादल बरस रहे हैं।। श्याम घटाएँ घिर-घिर आयी, रिम-झिम की बजती शहनाई, जी भर कर अब बरस रहे हैं। काले बादल बरस रहे हैं।। |
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‘‘एक मुक्तक’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
दुर्बल पौधों को ही ज्यादा पानी-खाद मिला करती है। चालू शेरों पर ही अक्सर, ज्यादा दाद मिला करती है सूखे पेड़ों पर बसन्त का, कोई असर नही होता है- यौवन ढल जाने पर सबकी गर्दन बहुत हिला करती है।। |
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सोमवार, 27 जुलाई 2009
"बहुत जज्बात ऐसे हैं, जिन्हें हम गढ़ नही सकते।" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
मेरे बहुत से ब्लागर मित्र अपनी पोस्ट में केवल एक शेर ही लगाते हैं। आज मैंने भी केवल कुछ शेर ही पोस्ट करने का मन बनाया है। कुछ मित्रों की रचनाओं को टिपियाते-टिपियाते यह छन्द बन गये।
बहुत जज्बात ऐसे हैं, जिन्हें हम गढ़ नही सकते।।
उन्हें मिलने की आदत है, मगर हम बढ़ नही सकते। बहुत जज्बात ऐसे हैं, जिन्हें हम गढ़ नही सकते।।
उन्हें भिड़ने की आदत है, मगर हम लड़ नही सकते। बहुत जज्बात ऐसे हैं, जिन्हें हम गढ़ नही सकते।।
उन्हें उड़ने की आदत है, मगर हम चढ़ नही सकते। बहुत जज्बात ऐसे हैं, जिन्हें हम गढ़ नही सकते।। |
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‘‘जग के झंझावातों में।’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
मानव दानव बन बैठा है, जग के झंझावातों में। दिन में डूब गया है सूरज, चन्दा गुम है रातों में।।
मुख में राम बगल में चाकू, मनवा है कितना पापी, दिवस-रैन उलझा रहता है, घातों में प्रतिघातों में। दिन में डूब गया है सूरज, चन्दा गुम है रातों में।।
ठोकर पर ठोकर खाकर भी, खुद को नही संभाला है, ज्ञान-पुंज से ध्यान हटाकर, लिपटा गन्दी बातों में। दिन में डूब गया है सूरज, चन्दा गुम है रातों में।।
भूल चुके हैं सीधी-सादी, सम्बन्धों की परिभाषा। विष के पादप उगे बाग में, जहर भरा है नातों में। दिन में डूब गया है सूरज, चन्दा गुम है रातों में।।
बाँट लिया गुलशन को, लेकिन दूर न मन के भेद हुए, खेल रहे हैं ग्राहक बन कर, दुष्ट-बणिक के हाथों में। दिन में डूब गया है सूरज, चन्दा गुम है रातों में।। |
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रविवार, 26 जुलाई 2009
‘‘झूला झूलें सावन में।’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
पेंग बढ़ाकर नभ को छू लें, झूला झूलें सावन में। मेघ-मल्हारों के गाने को, कभी न भूलें सावन में।। मँहगाई की मार पड़ी है, घी और तेल हुए महँगे, कैसे तलें पकौड़ी अब, पापड़ क्या भूनें सावन में। मेघ-मल्हारों के गाने को, कभी न भूलें सावन में।। हरियाली तीजों पर, कैसे लायें चोटी-बिन्दी को, सूखे मौसम में कैसे, अब सजें-सवाँरे सावन में। मेघ-मल्हारों के गाने को, कभी न भूलें सावन में।। आँगन से कट गये नीम,बागों का नाम-निशान मिटा, रस्सी-डोरी के झूले, अब कहाँ लगायें सावन में। मेघ-मल्हारों के गाने को, कभी न भूलें सावन में।। |
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शनिवार, 25 जुलाई 2009
‘‘अब तो जम करके बरसो, क्यों करते हो कल और परसों?’’(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
नदिया-नाले सूख रहे हैं, जलचर प्यासे-प्यासे हैं। पौधे-पेड़ बिना पानी के, व्याकुल खड़े उदासे हैं।। चौमासे के मौसम में, सूरज से आग बरसती है। जल की बून्दें पा जाने को, धरती आज तरसती है।। नभ की ओर उठा कर मुण्डी, मेंढक चिल्लाते हैं। बरसो मेघ धड़ाके से, ये कातर स्वर में गाते हैं।। दीन-कृषक है दुखी हुआ, बादल की आँख-मिचौली से। पानी अब तक गिरा नही, क्यों आसमान की झोली से? तितली पानी की चाहत में दर-दर घूम रही है। फड़-फड़ करती तुलसी की ठूँठों को चूम रही है।। दया करो घनश्याम, सुधा सा अब तो जम करके बरसो। रिम-झिम झड़ी लगा जाओ, क्यों करते हो कल और परसों? |
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गुरुवार, 23 जुलाई 2009
‘‘मौत से सब बेखबर हैं’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
ब्लॉगर मित्रों!
उच्चारण के 183 दिन के सफर में वैराग्य की यह 300वीं रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ। आशा ही नही अपितु विश्वास भी है कि आप सबका स्नेह मुझे आगे भी मिलता रहेगा।
किन्तु कितना मौत से सब बेखबर हैं। आयेंगे चौराहे और दोराहे कितने, एक जैसी अन्त में सबकी डगर हैं।।
जिन्दगी में स्वप्न सुन्दर हैं सजाये, गगनचुम्बी भवन सुन्दर हैं बनाये, साथ तन नही जायेगा, तन्हा सफर हैं। किन्तु कितना मौत से सब बेखबर हैं।।
देह कुन्दन कनक सी सब राख ही हो जायेंगे। चाँद-सूरज फेर ही लेंगे, नजर हैं। किन्तु कितना मौत से सब बेखबर हैं।।
सब तमन्नाएँ धरी की धरी ही रह जायेंगी, स्वर्ग की सरिता में, कितने ही भँवर हैं। किन्तु कितना मौत से सब बेखबर हैं।।
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"जीत की गन्ध आने लगी हार में" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
कितनी ताकत छिपी शब्द की धार में। जीत की गन्ध आने लगी हार में।। वो तो बातों से नश्तर चुभोते रहे, हम तो हँसते हुए, घाव ढोते रहे, घात ही घात था उनके हर वार में। जीत की गन्ध आने लगी हार में।। मेरे धीरज को वो आजमाते रहे, हम भी दिल पर सभी जख्म खाते रहे, पीठ हमने दिखाई नही प्यार में। जीत की गन्ध आने लगी हार में।। दाँव-पेंचों को वो आजमा जब चुके, हार थक कर के अब वार उनके रुके, धार कुंठित हुई उनके हथियार मे। जीत की गन्ध आने लगी हार में।। संग-ए-दिल बन गया मोम जैसा मृदुल, नेह आया उमड़ सिन्धु जैसा विपुल, हार कर जीत पाई थी उपहार में। जीत की गन्ध आने लगी हार में।। |
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बुधवार, 22 जुलाई 2009
"याद वो मंजर पुराने आ गये हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)"
फिर चली पुरवाई बादल छा गये हैं। याद वो मंजर पुराने आ गये हैं।। पेड़ के नीचे अचानक बैठ जाना, गीत लिखना और उनको गुनगुनाना, शब्द बनकर छन्द लय को पा गये हैं। याद वो मंजर पुराने आ गये हैं।। झूमते भौंरो का गुंजन-गान गाना, मस्त होकर सुमन का सौरभ लुटाना, फूल-पत्ते भी नजर को भा गये हैं। याद वो मंजर पुराने आ गये हैं।। झाँक कर खिड़की से उनका मुस्कुराना, नजर मिलते ही नजर अपनी झुकाना, नयन में सपने सुहाने छा गये हैं। याद वो मंजर पुराने आ गये हैं।। |
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मंगलवार, 21 जुलाई 2009
‘‘आँसुओं से ही दामन भिगोते रहे’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
भार हम जिन्दगी का ही ढोते रहे।
आँसुओं से ही दामन भिगोते रहे।। हाथ पर हाथ रख कर नही बैठे हम, सुख में हँसते रहे, गम में रोते रहे। आँसुओं से ही दामन भिगोते रहे।। कुछ भी आगे नही बढ़ सके राह में, हादसे दिन-ब-दिन रोज होते रहे। आँसुओं से ही दामन भिगोते रहे।। हमने महफिल में उनके तराने पढ़े, मखमली ख्वाब दिल में संजोते रहे। आँसुओं से ही दामन भिगोते रहे।। आँखों-आखों में काटी थी राते बहुत, वो तो खर्राटे भर-भर के सोते रहे। आँसुओं से ही दामन भिगोते रहे।। |
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सोमवार, 20 जुलाई 2009
‘‘क्यों यहाँ हिंसा बहाने पर तुले हो?’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
‘‘पाँच शेर’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
हौसला रख कर जरा आगे बढ़ो, फासले इतने तो मत पैदा करो।
मत अमावस से भरी बातें करो।
मत इसे जज्बात में रौंदा करो।
हारकर, थककर न यूँ बैठा करो।
मुल्क पर जानो-जिगर शैदा करो। |
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रविवार, 19 जुलाई 2009
रूमानी शायर गुरूसहाय भटनागर "बदनाम" की एक ग़ज़ल
वस्ल की शाम महकी महकी सी है वादियों की सवा शौक से आके इस का मज़ा लीजिऐ बन गयी मैं गज़ल आप के सामने जैसे चाहो मुझे आजमा लीजिऐ मय को पी कर अगर दिल मचलने लगे अपना दिल हमें फिर बना लीजिऐ ये बहारों का रंग हुस्न की तश्नगी प्यास नजरों की अपनी बुझा लीजिऐ मैं बयाबां में हूँ खुशनुमा एक कली मुझको जैसे जहाँ हो सजा लीजिऐ कल तलक आरजूयें जो ‘बदनाम’ थीं वस्ल को शाम है दिल लुटा लीजिऐ वादियों-जंगल, कानन, वस्ल-मिलन, मुलाकात, सवा-हवा, मय, शराब तश्नगी-प्यास, बयाबां-जंगल, आरजूयें-इच्छायें |
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‘‘जुबाँ से खुलेंगे, हरफ धीरे-धीरे’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
बढ़ेंगे तुम्हारी तरफ धीरे-धीरे। जुबाँ से खुलेंगे, हरफ धीरे-धीरे।। नया है मुसाफिर, नयी जिन्दगी है, नया फलसफा है, नयी बन्दगी है, पढ़ेंगे-लिखेंगे, बरक धीरे-धीरे। जुबाँ से खुलेंगे, हरफ धीरे-धीरे।। उल्फत की राहों की सँकरी गली है, अभी सो रही गुलिस्ताँ की कली है, मिटेगा दिलों का फरक धीरे-धीरे। जुबाँ से खुलेंगे, हरफ धीरे-धीरे।। दुर्गम डगर में हैं चट्टान भारी, हटानी पड़ेंगी, परत आज सारी, परबत बनेंगे, सड़क धीरे-धीरे। जुबाँ से खुलेंगे, हरफ धीरे-धीरे।। |
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शनिवार, 18 जुलाई 2009
‘‘सुख की मुस्कान नही छाई’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
आसमान में बादल छाये, इन्द्रधनुष भी दिया दिखाई।
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शुक्रवार, 17 जुलाई 2009
‘‘रंग-बिरंगी, तितली आई’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक)
गुरुवार, 16 जुलाई 2009
‘‘जरा ठहर जाओ’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
अभी तो शाम है शब जल्द आने वाली है। अभी चराग सजे हैं, जरा ठहर जाओ।।
तुम्हीं से ईद है, तुमसे मेरी दिवाली है। मेरी ये अर्ज है, कुछ देर तो ठहर जाओ।।
तुम्हारे वास्ते दिल का मकान खाली है। दिल-ए-चमन में मिरे, दो घड़ी ठहर जाओ।।
ज़फा-ए-दौर में, उम्मीद भी मवाली है, गम-ए-दयार में आकर जरा ठहर जाओ।।
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‘‘एक दिन स्वप्न साकार हो जायेगा’’ (डॉ रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
तुम अगर रोज मिलते-मिलाते रहे, एक दिन स्वप्न साकार हो जायेगा। मद-भरे मय के प्याले पिलाते रहे, प्यार का ज़ाम उपहार हो जायेगा।।
गन्ध से हो गये भाव मदहोश हैं, तुम अगर लाज से मुँह छिपाते रहे, मेरा जीना भी दुश्वार हो जायेगा। एक दिन प्यार उपहार हो जायेगा।।
खिल-खिलाते हुए, मीत बन कर मिलो, हुस्न से इश्क को गर रिझाते रहे, प्रीत में भी, अलंकार हो जायेगा। एक दिन प्यार उपहार हो जायेगा।।
हो खिजाओं में तुम और बहारों में तुम, मेरे आँगन में गर आते-जाते रहे, सुख का सागर ये परिवार हो जायेगा। एक दिन प्यार उपहार हो जायेगा।।
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बुधवार, 15 जुलाई 2009
‘‘पानी नदारत है, आने वाली कयामत है?’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
सावन का महीना बादलों की आँख-मिचौली और पानी नदारत है, -०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०- चारों ओर सूखा और सिर्फ सूखा प्यासे हैं बाग, तड़ाग, व्यर्थ हो गई सब प्रार्थना और इबादत हैं -०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०- खेतों में उड़ रही है धूल चमन में मुरझा रहे हैं फूल क्या आने वाली कयामत है? -०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०- |
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मंगलवार, 14 जुलाई 2009
’’तुम ही मेरा सकल काव्य संसार हो’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
सोमवार, 13 जुलाई 2009
‘‘तुम अगर मेरे जीवन में आते नही’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’)
तुम अगर मेरे जीवन में आते नही। हमको रंग जिन्दगी के लुभाते नही।। होती खेतों में तम्बू-कनाते गड़ी, एक सुन्दर सा घर हम बनाते नही। हमको रंग जिन्दगी के लुभाते नही।। प्यार करना न आता हमें उम्र भर, गीत-कविताएँ हम गुन-गुनाते नही।। हमको रंग जिन्दगी के लुभाते नही।। करनी पड़ती हमें एक दिन खुदकशी, राह जीने की गर तुम दिखाते नही। हमको रंग जिन्दगी के लुभाते नही।। डर गयीं थी सभी रोशनी की किरण, आँख चन्दा व सूरज मिलाते नही। हमको रंग जिन्दगी के लुभाते नही।। ले ही जाती भँवर में लहर खींच कर, हाथ अपना अगर तुम थमाते नही। हमको रंग जिन्दगी के लुभाते नही।। |
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रविवार, 12 जुलाई 2009
‘‘चलो झूला झूलेंगे’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
शनिवार, 11 जुलाई 2009
"बिन डोर खिचें सब आते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
शब्दों के मौन निमन्त्रण से, बिन डोर खिचें सब आते हैं। मुद्दत से टूटे रिश्ते भी, सम्बन्धों में बंध जाते हैं।। इनके बिन बात अधूरी है, नजदीकी में भी दूरी है, दुनिया दारी में पड़ करके, बतियाना बहुत जरूरी है, मकड़ी के नाजुक जालों में, बलवान सिंह फंद जाते हैं। मुद्दत से टूटे रिश्ते भी, सम्बन्धों में बंध जाते हैं।। पशु-पक्षी और संगी-साथी, शब्दों से मन को भरमाते, तीखे शब्दों से मीत सभी, पल भर में दुश्मन बन जाते, पहले तोलो, फिर कुछ बोलो, स्वर मधुर छन्द बन जाते हैं। मुद्दत से टूटे रिश्ते भी, सम्बन्धों में बंध जाते हैं।। |
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शुक्रवार, 10 जुलाई 2009
‘‘तप कर निखर गये हम तो’’ (डॉ रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
डायरी से एक पुरानी गज़ल
इश्क की राह में चल कर बिखर गये हम तो। आग के ताप में तप कर निखर गये हम तो।। कल तलक ख्वाब था अब बनके हकीकत आया, उनका इक वार मेरे दिल में नसीहत लाया, अपने जज्बात में आकर सिहर गये हम तो। आग के ताप में तप कर निखर गये हम तो।। बदले हालात में, किस्मत ने साथ छोड़ दिया, बीती यादों ने मुकद्दर को गम से जोड़ दिया, तुम जिधर को चले थे, बस उधर गये हम तो। आग के ताप में तप कर निखर गये हम तो।। तुम कहाँ हो? मेरे हालात पर तरस खाओ, चाँदनी रात में आकर के दरस दिखलाओ, राह-ए -उल्फत में कुछ सुधर गये हम तो। आग के ताप में तप कर निखर गये हम तो।। |
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गुरुवार, 9 जुलाई 2009
‘‘घन छाये हैं’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
बुधवार, 8 जुलाई 2009
‘‘गगन में छा गये बादल’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
धरा में जो दरारें थी, मिटी बारिश की बून्दों से,
मंगलवार, 7 जुलाई 2009
‘‘इन्साफ की डगर पर, नेता नही चलेंगे’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
इन्साफ की
डगर पर, नेता नही चलेंगे।
होगा जहाँ
मुनाफा, उस ओर जा मिलेंगे।।
दिल में घुसा
हुआ है,
दल-दल दलों
का जमघट।
संसद में
फिल्म जैसा,
होता है खूब
झंझट।
फिर रात-रात
भर में, आपस में गुल खिलेंगे।
होगा जहाँ
मुनाफा उस ओर जा मिलेंगे।।
गुस्सा व
प्यार इनका,
केवल दिखावटी
है।
और देश-प्रेम
इनका,
बिल्कुल
बनावटी है।
बदमाश, माफिया सब इनके ही घर
पलेंगे।
होगा जहाँ
मुनाफा, उस ओर जा मिलेंगे।।
खादी की
केंचुली में,
रिश्वत भरा
हुआ मन।
देंगे वहीं
मदद ये,
होगा जहाँ
कमीशन।
दिन-रात
कोठियों में, घी के दिये जलेंगे।
होगा जहाँ मुनाफा, उस ओर जा मिलेंगे।।
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सोमवार, 6 जुलाई 2009
‘‘जंगल और जीव’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
समझदार है, सीधा भी है,
काम हमारे आता है।
मूक प्राणियों पर हमको तो,
तरस बहुत ही आता है।
इनकी देख दुर्दशा अपना,
सीना फटता जाता है।।
इनकी रक्षा करना होगा।
जीवन जीने की खातिर,
‘‘जोकर’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
जो काम नही कर पायें दूसरे, वो जोकर कर जाये। सरकस मे जोकर ही, दर्शक-गण को खूब रिझाये। नाक नुकीली, चड्ढी ढीली, लम्बी टोपी पहने, उछल-कूद कर जोकर राजा, सबको खूब हँसाये। चाँटा मारा साथी को, खुद रोता जोर-शोर से, हाव-भाव से, शैतानी से, सबका मन भरमाये। लम्बावाला तो सीधा है, बौना बड़ा चतुर है, उल्टी-सीधी हरकत करके, बच्चों को ललचाये। (चित्र गूगल सर्च से साभार) |
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रविवार, 5 जुलाई 2009
‘‘जग की यही कहानी है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
छिपी हुई खारे आँसू में, दुख की कोई निशानी है।।
मेड़ खेत को लगी निगलने, किसको दोषी ठहरायें,
रक्षक ही भक्षक बन बैठे, न्याय कहाँ से हम पायें,
अन्धा है कानून, न्याय की डगर बनी बेगानी है।
छिपी हुई खारे आँसू में, दुख की कोई निशानी है।।
दुर्जन कुर्सी पर, लेकिन सज्जन फिरते मारे-मारे,
सच्चों की अब खैर नही, झूठों के हैं वारे-न्यारे,
शौर्य-वीरता की तो मानों, थम सी गयी रवानी है।
छिपी हुई खारे आँसू में, दुख की कोई निशानी है।।
दुर्बल को बलवान लूटता, जनता को राजा लूटे,
निर्धन बिना मौत मरता, धन के बल से कातिल छूटे,
बे-ईमानों की इस कलयुग में, चमक रही पेशानी है।
छिपी हुई खारे आँसू में, दुख की कोई निशानी है।।
शनिवार, 4 जुलाई 2009
‘‘माता और पिता’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
‘‘सुन्दर सुमन खिलाना होगा’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
मानवता मर गयी विश्व में, सूरज है पथराया। डोल गये ईमान-धर्म, सारा जग है बौराया।। नदियों में बहने वाले, तालाबों को क्या पहचाने। महलों में रहने वाले, सर्दी-गर्मी को क्या जाने।। जगत बँधा है, प्रीत-रीत के अभिनव बन्धन में। ब्याल लिप्त रहता है, चन्दन के महके तन में।। जीवन एक सफर, इसमें यादें आती जाती है। रिश्तों की बुनियाद, राह में बनती जाती है।। जितना जख्म कुरेदोगे, उतना ही दर्द बढ़ेगा। जितनी धूल उड़ाओगे, उतना ही गर्द चढ़ेगा।। जोड़-तोड़ करके अपना परिवार चलाना होगा। वीराने गुलशन में सुन्दर सुमन खिलाना होगा।। |
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शुक्रवार, 3 जुलाई 2009
‘‘जब आती है हवा, तभी बूटा-पत्ता हिलता है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
अन्तर रखने वालों से, मेरा अन्तर नही मिलता है। जब आती है हवा, तभी बूटा-पत्ता हिलता है।। जीवन कभी कठोर कठिन है, कभी सरल सा है, भोजन अमृत-तुल्य कभी है, कभी गरल सा है, माली बिना किसी उपवन में, फूल नही खिलता हैं। जब आती है हवा, तभी बूटा-पत्ता हिलता है।। सावन मे भी कभी-कभी सूखा भी होता है, खाना खाकर कभी, उदर भूखा भी होता है, काँटे जिनकी करें सुरक्षा उनका तन नही छिलता है। जब आती है हवा, तभी बूटा-पत्ता हिलता है।। नर्म-नर्म बिस्तर में, सुख की नींद नही आती है, किन्तु श्रमिक को कंकड़ की ढेरी पर आ जाती है, तप और श्रम से पत्थर का भी हृदय पिघलता है। जब आती है हवा, तभी बूटा-पत्ता हिलता है।। |
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‘‘आओ तो’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
सब अंधियारे मिट जायेंगे, आशा का दीप जलाओ तो। भँवरे गुन-गुन कर गायेंगे, गुलशन में फूल खिलाओ तो।। बागों में कोयल बोल रही, मिश्री कानों में घोल रही, हम साज बजाने आयेंगे, तुम अभिनव राग सुनाओ तो। भँवरे गुन-गुन कर गायेंगे, गुलशन में फूल खिलाओ तो।। क्यों नील गगन को ताक रहे, चितवन से क्यों हो झाँक रहे, हम मर कर भी जी जायेंगे, अमृत की बून्द पिलाओ तो। भँवरे गुन-गुन कर गायेंगे, गुलशन में फूल खिलाओ तो।। लहरों से कटते हैं कगार, करते हो किसका इन्तजार, हम चप्पू लेकर आयेंगे, तुम नौका बन कर आओ तो। भँवरे गुन-गुन कर गायेंगे, गुलशन में फूल खिलाओ तो।। |
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गुरुवार, 2 जुलाई 2009
‘‘जरा सी बात’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
जरा सी बात में ही युद्ध होते हैं बहुत भारी। जरा सी बात में ही क्रुद्ध होते हैं धनुर्धारी।। जरा सी बात ही माहौल में विष घोल देती है। जरा सी जीभ ही कड़ुए वचन को बोल देती है।। मगर हमको नही इसका कभी आभास होता है। अभी जो घट रहा कल को वही इतिहास होता है।। |
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बुधवार, 1 जुलाई 2009
‘‘सुमन से मन का नाता जोड़ो’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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