मेरे बहुत से ब्लागर मित्र अपनी पोस्ट में केवल एक शेर ही लगाते हैं। आज मैंने भी केवल कुछ शेर ही पोस्ट करने का मन बनाया है। कुछ मित्रों की रचनाओं को टिपियाते-टिपियाते यह छन्द बन गये।
बहुत जज्बात ऐसे हैं, जिन्हें हम गढ़ नही सकते।।
उन्हें मिलने की आदत है, मगर हम बढ़ नही सकते। बहुत जज्बात ऐसे हैं, जिन्हें हम गढ़ नही सकते।।
उन्हें भिड़ने की आदत है, मगर हम लड़ नही सकते। बहुत जज्बात ऐसे हैं, जिन्हें हम गढ़ नही सकते।।
उन्हें उड़ने की आदत है, मगर हम चढ़ नही सकते। बहुत जज्बात ऐसे हैं, जिन्हें हम गढ़ नही सकते।। |
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सोमवार, 27 जुलाई 2009
"बहुत जज्बात ऐसे हैं, जिन्हें हम गढ़ नही सकते।" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंटिपियाने पर इतने खूबसूरत छन्द बन गये तो क्या कहने --
बहुत खूब बने है.
बहुत जज्बात ऐसे हैं, जिन्हें हम गढ़ नही सकते...
जवाब देंहटाएंwaah.. !
मयंक जी बहुत सुन्दर जज़्वात हैं आपकी हर रचना सुन्दर संवेदना लिये होती है बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंAap hamesh kamaal karte hain.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब सर जी
जवाब देंहटाएंwaah ek se bhadkar ek,lajawab
जवाब देंहटाएंवाह आपकी तो बातचीत ही काव्यमयी होता है. बहुत शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
सब एक से बढ़ कर एक गढ़ लिये आपने तो!!
जवाब देंहटाएंअरे वाह ये तो बहुत शानदार शेर बन गये..
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया साहब!
जवाब देंहटाएंआपकी बेहतरीन ग़ज़ल से प्रेरित होकर इस नाचीज ने भी एक शे'र कहने की हिम्मत की है.आपका आशीर्वाद चाहूँगा-
हम अपने दायरे में कैद हैं ये अपनी फितरत है,
हम अपना दोष दूजे के सिरों पर मढ़ नहीं सकते
gadhe ji gadhe
जवाब देंहटाएंkhoob gadhe
bahut khoob she'r gadhe
_______BADHAAI !
aap to mahir hain is vidha ke..........bahut khoobsoorat chhand bamd gaye.
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