धान्य से भरपूर, खेतों में झुकी हैं डालियाँ। धान के बिरुओं ने, पहनी हैं नवेली बालियाँ।। क्वार का आया महीना, हो गया निर्मल गगन, ताप सूरज का घटा, बहने लगी शीतल पवन, देवपूजन के लिए, सजने लगी हैं थालियाँ। धान के बिरुओं ने, पहनी हैं नवेली बालियाँ।। सुमन-कलियों की चमन में, डोलियाँ सजने लगीं, भ्रमर गुंजन कर रहे, शहनाइयाँ बजने लगीं, प्रणय-मण्डप में मधुर, बजने लगीं हैं तालियाँ। धान के बिरुओं ने, पहनी हैं नवेली बालियाँ।। |
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
Linkbar
फ़ॉलोअर
मंगलवार, 30 सितंबर 2014
"धान की बालियाँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सोमवार, 29 सितंबर 2014
"तीस सितम्बर-मेरी संगिनी का जन्मदिन" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
30 सितम्बर को
मेरी जीवनसंगिनी
श्रीमती अमरभारती का
60वाँ जन्मदिन है।
इस अवसर पर उपहार के रूप में
कुछ उद्गार उन्हें समर्पित कर रहा हूँ।
जन्मदिन पर मैं सतत् उपहार दूँगा।
प्यार जितना है हृदय में, प्यार दूँगा।।
साथ में रहते जमाना हो गया है,
“रूप” भी अब तो पुराना हो गया है,
मैं तुम्हें फिर भी नवल उद्गार दूँगा।
प्यार जितना है हृदय में, प्यार दूँगा।।
एक पथ के पथिक ही हम और तुम हैं,
एक रथ के चक्र भी हम और तुम हैं,
नाव जब भी डगमगायेगी भँवर में,
हाथ में अपनी तुम्हें पतवार दूँगा।
प्यार जितना है हृदय में, प्यार दूँगा।।
साथ तुम मझधार में मत छोड़ देना,
प्रीत की तुम डोर को मत तोड़ देना,
सुमन कलियों से सुसज्जित चमन में,
फैसले का मैं तुम्हें अधिकार दूँगा।
प्यार जितना है हृदय में, प्यार दूँगा।।
ज़िन्दग़ी में नित-नये आग़ाज़ होंगे,
दिन पुराने और नये अन्दाज़ होंगे,
प्राण तन में जब तलक मेरे रहेंगे,
मैं तुम्हें अपना सबल आधार दूँगा।
प्यार जितना है हृदय में, प्यार दूँगा।।
|
रविवार, 28 सितंबर 2014
"तेल कान में डाला क्यों?" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
गुम हो गया उजाला क्यों?
दर्पण काला-काला क्यों?
चन्दा गुम है, सूरज सोया
काट रहे, जो हमने बोया
तेल कान में डाला क्यों?
राज-पाट सिंहासन पाया
सुख भोगा-आनन्द मनाया
फिर करता घोटाला क्यों?
जब खाली भण्डार पड़े हैं
बारिश में क्यों अन्न सड़े हैं
गोदामों में ताला क्यों?
कहाँ गयीं सोने की लड़ियाँ
पूछ रही हैं भोली चिड़ियाँ
सूखी मंजुल माला क्यों?
जनता सारी बोल रही है
न्याय-व्यवस्था डोल रही है
दाग़दार मतवाला क्यों?
|
शनिवार, 27 सितंबर 2014
"मैं तुमको समझाऊँ कैसे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शुरूआती दौर की एक रचना
पागल हो तुम मेरी प्रेयसी,
मैं तुमको समझाऊँ कैसे?
सुलग-सुलगकर मैं जलता हूँ,
यह तुमको बतलाऊँ कैसे?
चन्दा और चकोरी जैसा,
मेरा और तुम्हारा नाता,
दोनों में है दूरी इतनी,
मिलन कभी नही है हो पाता,
दूरी की जो मजबूरी है,
मजबूरी जतलाऊँ कैसे?
पागल हो तुम मेरी प्रेयसी,
मैं तुमको समझाऊँ कैसे?
बाहर बजती हैं शहनाईं,
लेकिन अन्तर्मन रोता है,
सूख गये आँसू आँखों में ,
पर दिल में कुछ-कुछ होता है,
विरह व्यथा जो मेरे मन में,
बोलो उसे छिपाऊँ कैसे?
पागल हो तुम मेरी प्रेयसी,
मैं तुमको समझाऊँ कैसे?
बसन्त ऋतु में, सुमन खिलें हैं,
पर मन में मधुमास नही है,
लाश ढो रहा हूँ मैं अपनी,
जीवन में कुछ रास नही है,
कदम डगमगाते हैं अब तो,
अपनी मंजिल पाऊँ कैसे?
पागल हो तुम मेरी प्रेयसी,
मैं तुमको समझाऊँ कैसे?
|
शुक्रवार, 26 सितंबर 2014
"ग़ज़ल-रूप की बुनियाद" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
लोग जब जुट जायेंगे,
तो काफिला हो जायेगा
आम देगा तब मज़ा,
जब पिलपिला हो जायेगा
पास में आकर कभी,
कुछ वार्ता तो कीजिए
बात करने से रफू
शिकवा-गिला हो जायेगा
आपसी पहचान से,
रिश्ते नये बन जायेंगे
रोज़ मिलने का शुरू,
जब सिलसिला हो जायेगा
नेह बाती को
मिलेगा, जगमगायेगा दिया
जिस्म में जब आत्मा
का, दाखिला हो जायेगा
“रूप” की बुनियाद
पर तो, प्यार है टिकता नहीं
अच्छा-भला इन्सान
इससे मुब्तिला हो जायेगा
(मुब्तिला=पीडित)
|
गुरुवार, 25 सितंबर 2014
"महफिलों में मुस्कराना चाहिए" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
दर्दे-दिल अपना
छुपाना चाहिए
महफिलों में
मुस्कराना चाहिए
ज़िन्दग़ी तो एक
प्यारा गीत है
ज़िन्दग़ी को गुनगुनाना
चाहिए
फूल के ही साथ रहते
शूल हैं
ख़ार से दामन बचाना
चाहिए
संगेदिल से राज़ को
अपने कभी
हो सके जितना
छिपाना चाहिए
इश्क में नादानियाँ
अच्छी नहीं
“रूप” को दिल में
बसाना चाहिए
|
बुधवार, 24 सितंबर 2014
"मंगल पर दो कुण्डलियाँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-१-
भारत के विज्ञान
का, सफल हुआ अभियान
मंगल पर पहुँचा
दिया, अपना मंगलयान
अपना मंगलयान, चल
पड़ा नभ के पथ में
पार किये अवरोध, न
भटका कहीं कुपथ में
कह मयंक कविराय, बन
गयी नई इबारत
उन्नति के सोपान, चढ़ेगा आगे भारत
-२-
पूरी दुनिया के
लिए, मंगल था दुर्भेद
भारत खोलेगा सभी,
उस मंगल के भेद
उस मंगल के भेद, समझ
में अब आयेंगे
यदि होगा सम्भाव्य,
लोग भी बस जायेंगे
कह मयंक कविराय,
दूर होगी मजबूरी
पूरा है विश्वास, साधना
होगी पूरी
|
मंगलवार, 23 सितंबर 2014
"उड़ान में प्रकाशित-पेड़ लगाओ-धरा बचाओ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कोलकाता से प्रकाशित
त्रयमासिक पत्रिका "उड़ान"
के प्रवेशांक (अगस्त-2014)
में मेरी बालकविता
"पेड़ लगाओ-धरा बचाओ"
जब गर्मी का मौसम आता,
सूरज तन-मन को झुलसाता।
तन से टप-टप बहे पसीना,
जीना दूभर होता जाता।
ऐसे मौसम में पेड़ों पर,
फल छा जाते हैं रंग-रंगीले।
उमस मिटाते हैं तन-मन की,
खाने में हैं बहुत रसीले।
ककड़ी-खीरा और खरबूजा,
प्यास बुझाता है तरबूजा।
जामुन पाचन करने वाली,
लीची मीठे रस का कूजा।
आड़ू और खुमानी भी तो,
सबके ही मन को भाते हैं।
आलूचा और काफल भी तो,
हमें बहुत ही ललचाते हैं।
कुसुम दहकते हैं बुराँश पर,
लगता मोहक यह नज़ारा।
इन फूलों के रस का शर्बत,
शीतल करता बदन हमारा।
आँगन और बगीचों में कुछ,
फल वाले बिरुए उपजाओ।
सुख से रहना अगर चाहते,
पेड़ लगाओ-धरा बचाओ।
|
"ग़ज़ल-रास्ता अपना सरल कैसे करूँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
भाव अपनी ग़ज़ल में
कैसे भरूँ
शब्द को अपने गरल
कैसे करूँ
फँस गया अपने बुने
ही जाल में
रास्ता अपना सरल कैसे
करूँ
तिश्नगी से कण्ठ
सूखा जा रहा
आचमन देकर तरल कैसे
करूँ
ज़िन्दगी में चाह
है, ना राह है
चश्म को अपनी सजल
कैसे करूँ
तन-बदन में पड़
गयीं है झुर्रियाँ
“रूप” को अपने नवल
कैसे करूँ
|
सोमवार, 22 सितंबर 2014
"दोहे-महँगाई उपहार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जब से छोटा हो गया,
रुपये का आकार।
तब से बौना हो गया,
रिश्तों का संसार।।
--
बिगड़ रही है
व्यवस्था, बेबस है सरकार।
कीमत रुपये की घटी,
मँहगाई की मार।।
--
आम जरूरत का हुआ, मँहगा
सब सामान।
ऐसी हालत देख कर, जनता
है हैरान।।
--
फोन-कार के कर
दिये, अब तो सस्ते रेट।
लेकिन कैसे भरेगा,
इनसे भूखा पेट।।
--
सब्जी और अनाज के, बढ़े हुए हैं भाव।
अब तक भी आया नहीं,
कीमत में ठहराव।।
--
तेल कान में डाल
कर, सोई है सरकार।
निर्धन जनता के
लिए, महँगाई उपहार।।
--
अच्छे दिन का हो
गया, सपना अब काफूर।
सत्ता मिलते ही
हुए, मोदी मद में चूर।।
|
रविवार, 21 सितंबर 2014
"ग़ज़ल-नंगा आदमी भूखा विकास" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
दिल्ली उन्हीं के वास्ते, दिल जिनके पास है
खाली है अगर जेब
तो, दिल्ली उदास है
चारों तरफ मची हुई
है भाग-दौड़ सी
रिश्तो में अब
मिठास के बदले खटास है
चलता है टेढ़ी चाल
सियासत का पजामा
मैला है मन-बदन मगर
उजला लिबास है
पद मिल गया तो देश
की चिन्ता नहीं रही
कुर्सी की टाँग से
बँधा अब तो विलास है
सागर में रह के मीन
को मिनरल की चाह है
बुझती नहीं है आज मगर
की पिपास है
रोजी के लिए
नौनिहाल माँजता बरतन
हाथों में उसके आज
भी झूठा गिलास है
वो देख रहा “रूप”
को आजाद वतन के
नंगा है आज आदमी
भूखा विकास है
|
शनिवार, 20 सितंबर 2014
कविता -"टुकड़ा-एमी लोवेल" (अनुवादक-डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
"टुकड़ा" (Fragment' a poem by Amy Lowell)अनुवादक-डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक"कविता क्या है? |
♥ काव्यानुवाद ♥
कविता रंग-बिरंगे, मोहक पाषाणों सी होती है क्या?
जिसे सँवारा गया मनोरम, रंग-रूप में नया-नया!! हर हालत में निज सुन्दरता से, सबके मन को भरना! ऐसा लगता है शीशे को, सिखा दिया हो श्रम करना!! इन्द्रधनुष ने सूर्यरश्मियों को जैसे अपनाया है! क्या होता है अर्थ, धर्म का? यह रहस्य बतलाया है!! |
|
शुक्रवार, 19 सितंबर 2014
"ग़ज़ल-यहाँ अरमां निकलते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
वही साक़ी वही मय
है, नई बोतल बदलते हैं
सुराखानों में दारू
के, नशीले जाम ढलते
हैं
कोई ग़म को भुलाता
है, कोई मस्ती को पाता
है,
तभी तो शाम होते ही, यहाँ अरमां निकलते
हैं
नहीं है तन-बदन का
होश, बूढ़े और जवानों को
ख़ुमारी के नशे में
तो, सभी के दिल मचलते
हैं
न अपनी कार भाती है, न बीबी याद आती है
किराये की सवारी
में, मज़े करने को चलते
हैं
हकीकत मानकर कोई, लुटाता “रूप” पर दौलत
खुली आँखों में ज़न्नत
के, सुनहरे ख़्वाब पलते हैं
|
लोकप्रिय पोस्ट
-
दोहा और रोला और कुण्डलिया दोहा दोहा , मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। दोहे के चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) मे...
-
लगभग 24 वर्ष पूर्व मैंने एक स्वागत गीत लिखा था। इसकी लोक-प्रियता का आभास मुझे तब हुआ, जब खटीमा ही नही इसके समीपवर्ती क्षेत्र के विद्यालयों म...
-
नये साल की नयी सुबह में, कोयल आयी है घर में। कुहू-कुहू गाने वालों के, चीत्कार पसरा सुर में।। निर्लज-हठी, कुटिल-कौओं ने,...
-
समास दो अथवा दो से अधिक शब्दों से मिलकर बने हुए नए सार्थक शब्द को कहा जाता है। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि ...
-
आज मेरे छोटे से शहर में एक बड़े नेता जी पधार रहे हैं। उनके चमचे जोर-शोर से प्रचार करने में जुटे हैं। रिक्शों व जीपों में लाउडस्पीकरों से उद्घ...
-
इन्साफ की डगर पर , नेता नही चलेंगे। होगा जहाँ मुनाफा , उस ओर जा मिलेंगे।। दिल में घुसा हुआ है , दल-दल दलों का जमघट। ...
-
आसमान में उमड़-घुमड़ कर छाये बादल। श्वेत -श्याम से नजर आ रहे मेघों के दल। कही छाँव है कहीं घूप है, इन्द्रधनुष कितना अनूप है, मनभावन ...
-
"चौपाई लिखिए" बहुत समय से चौपाई के विषय में कुछ लिखने की सोच रहा था! आज प्रस्तुत है मेरा यह छोटा सा आलेख। यहाँ ...
-
मित्रों! आइए प्रत्यय और उपसर्ग के बारे में कुछ जानें। प्रत्यय= प्रति (साथ में पर बाद में)+ अय (चलनेवाला) शब्द का अर्थ है , पीछे चलन...
-
“ हिन्दी में रेफ लगाने की विधि ” अक्सर देखा जाता है कि अधिकांश व्यक्ति आधा "र" का प्रयोग करने में बहुत त्र...