कब लेगा मौसम अँगड़ाई।
लहराते गेहूँ के बिरुए,
शीतल पवन बड़ी दुखदाई।।
पर्वत पर हिम जमा हुआ है,
निर्झर भी तो थमा हुआ है,
मार पड़ी सब पर कुहरे की,
होती है अब हाड़ कँपाई।
लहराते गेहूँ के बिरुए,
शीतल पवन बड़ी दुखदाई।।
धरती पर शीतल छाया है,
सूरज नभ में शर्माया है।
शाखाएँ सुनसान पड़ी हैं,
कोई चिड़िया नज़र न आई।
लहराते गेहूँ के बिरुए,
शीतल पवन बड़ी दुखदाई।।
डरा हुआ उपवन का माली,
सिमट गयी है सब हरियाली,
देख दशा सुमनों की ऐसी,
भँवरों ने गुंजार मचाई।
लहराते गेहूँ के बिरुए,
शीतल पवन बड़ी दुखदाई।।
लुप्त हुआ है "रूप" सलोना,
कुहरे का हैं बिछा बिछौना,
सहमी-सहमी सी मधुमक्खी,
भिन्न-भिन्न करके मँडराई।
लहराते गेहूँ के बिरुए,
शीतल पवन बड़ी दुखदाई।।
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बुधवार, 30 नवंबर 2016
गीत "होती है अब हाड़ कँपाई" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक)
मंगलवार, 29 नवंबर 2016
गीत "कवि लिखने से डरता हूँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
घर-आँगन-कानन में जाकर,
मैं तुकबन्दी करता हूँ।
अनुभावों का अनुगायक हूँ,
मैं कवि लिखने से डरता हूँ।।
है नहीं मापनी का गुनिया,
अब तो अतुकान्त लिखे दुनिया।
असमंजस में हैं सब बालक,
क्या याद करे इनको मुनिया।
मैं बन करके पागल कोकिल,
कोरे पन्नों को भरता हूँ।
मैं कवि लिखने से डरता हूँ।।
आयुक्त फिरें मारे-मारे,
उन्मुक्त हुए बन्धन सारे।
जीवन उपवन के शब्दों में,
अब तुप्त हो गये बंजारे।
पतझर की मारी बगिया में,
मैं सुमन सुगन्धित झरता हूँ।
मैं कवि लिखने से डरता हूँ।।
दे पन्त-निराला की मिसाल,
चौकीदारी करते विडाल।
निर्मल कैसे अब नीर रहे,
कचरा गंगा में रहे डाल।
मिलते हैं मोती बगुलों को,
मैं घास-पात को चरता हूँ।
मैं कवि लिखने से डरता हूँ।।
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सोमवार, 28 नवंबर 2016
दोहे "माता का दरबार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
संरक्षण मिलता वहाँ, जहाँ रहे अपनत्व।।
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माता से बढ़कर नहीं, जग में कोई उदार।
माता के जैसा नहीं, करता कोई प्यार।।
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खुला हुआ सबके लिए, माता जी का द्वार।
भेट-चढ़ावे की नहीं, माता को दरकार।।
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जगदम्बा के सदन में, भरा हुआ भण्डार।
सच्चे मन से माँग लो, माता से उपहार।।
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मन्दिर में जाकर कभी, करना मत उपहास।
जगतनियन्ता ईश का, कण-कण में है वास।।
--
सरिता में चलती नहीं, कभी पाप की नाव।
वैसा मिलता है उसे, जैसा जिसका भाव।।
--
योगदान जिनका नहीं, वो ही करें सवाल।
ठेकेदारों ने किया, दूषित जल का ताल।।
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शनिवार, 26 नवंबर 2016
दो कुण्डलियाँ "खोल दो मन की खिड़की" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
खिड़की खोली जब सुबह, आया सुखद समीर।
उपवन में मुझको दिखा, मोती जैसा नीर।।
मोती जैसे नीर, घास पर चमक रहा था।
सूरज की किरणों में, हीरक दमक रहा था।।
कह मयंक कविराय, शीत देता था झिड़की।
रवि देता सन्देश, खोल दो मन की खिड़की।।
--
अपने सुर में गी रहे, पंछी अभिनव गीत।
गूँज रहा परिवेश में, कलरव का संगीत।।
यजन-भजन करके, बन जायें सब उदगाता।
कलरव का संगीत, सीख हमको सिखलाता।।
कह मयंक होते हैं, जग में झूठे सपने।
बाँटो तो कुछ प्यार, बनेंगे सारे अपने।।
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शुक्रवार, 25 नवंबर 2016
दोहे "हुए आज मजबूर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
कैसा है ये फैसला, जनता है बदहाल।
रोगी को औषध नहीं, दस्तक देता काल।।
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सन्नाटा बाजार में, समय हुआ विकराल।
नोट जेब में हैं नहीं, कौन खरीदे माल।।
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फाँस गले में फँस गयी, शासक है लाचार।
नये-नये कानून नित, लाती है सरकार।।
--
काम-धाम को छोड़कर, हुए आज मजबूर।
लाइन में लगकर खड़े, कृषक और मजदूर।।
--
गेहूँ बोने के लिए, नहीं बीज औ’ खाद।
धरती के भगवान का, जीवन है बरबाद।।
--
जिनके मत से है मिली, सत्ता की जागीर।
वो कैसे समझें भला, जनता की अब पीर।।
--
रोज विमानों में उड़ें, राजा और वजीर।
करते लच्छेदार हैं, जनता में तकरीर।।
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ग़ज़ल "हुआ बेसुरा आज तराना" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
ख़ुदगर्ज़ी का हुआ ज़माना
कैसे बुने कबीर चदरिया
उलझ गया है ताना-बाना
पसरी है सब जगह मिलावट
नकली पानी नकली दाना
देशभक्त हैं दुखी देश में
लूट रहे मक्कार खज़ाना
आजादी अभिशाप बन गयी
हुआ बेसुरा आज तराना
दीन-धर्म के फन्दे में है
मानवता का अब अफसाना
“रूप” देखकर दे देते वो
हमें भीख में कुछ नज़राना
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गुरुवार, 24 नवंबर 2016
"हर इक कदम पर भरे पेंच-औ-खम हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
ये माना कि ग़म में हुई चश्म नम हैं,
मगर दिल-जिगर में बहुत जोर-दम हैं।
भरोसा हमें अपने जज़्बात पर है,
मगर उनको एतबार अपने पे कम हैं।
अन्धेरों-उजालों भरी जिन्दगी में,
हर इक कदम पर भरे पेंच-औ-खम हैं।
हमें दर्द पीने की आदत है जानम,
दुनिया में हम जैसे लाखों सनम हैं।
समाया हुआ “रूप” दिलवर का दिल में,
सितारों के किस्मत में लिक्खे सितम हैं।
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बुधवार, 23 नवंबर 2016
दोहे "मुख हैं सबके म्लान" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बादल नभ में है नहीं, उड़ती जाती धूल।
पानी बिन मुरझा रहे, उपवन के सब फूल।।
--
पैसा घर में है नहीं, मुख हैं सबके म्लान।
दुखी देश में हो रहे, छोटे बड़े किसान।।
--
जिनके बेटी है नहीं, वो क्या जाने दर्द।
दयाहीन शासक हुआ, कौन बने हमदर्द।।
--
अब तो अपने देश में, हुए विकट हालात।
नोट नहीं हैं बैंक में, बिगड़ गयी है बात।।
--
दो हजार के नोट को, पाना है आसान।
छुट्टा तो मिलता नहीं, लोग हुए हलकान।
--
सम्यक् छोटे नोट से, खाली था जब कोष।
बिना विचारे क्यों किया, फिर ऐसा उद्+घोष।।
--
जनमत के इस ऐप का, समझ न आया सत्य।
क्या जनता की राय पर, वापिस लोगे कृत्य।।
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सोमवार, 21 नवंबर 2016
दोहे "जीव सभी अल्पज्ञ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
धरती पर पैदा हुए, जीव सभी अल्पज्ञ।
लेकिन मानव समझता, अपने को सर्वज्ञ।।
--
साधक को अब साध्य का, नहीं रहा अनुमान।
खुद को खुदा समझ रहा, अपने को इंसान।।
--
साधन हों कितने भले, लेकिन सुख से हीन।
जीवन-मृत्यु सदा से, ईश्वर के आधीन।।
--
जो कुछ हमको चाहिए, देती हमें जमीन।
माने नहीं कृतज्ञता, होता वही कमीन।।
--
कितना भी आगे बढ़े, दुनिया में विज्ञान।
लेकिन उसमें है नहीं, देवलोक का ज्ञान।।
--
जीवन को कैसे जियें, दिशा बताता योग।
आते इसको सीखने, परदेसों से लोग।।
--
वैदिक विद्या पर भले, हों कितने मतभेद।
लेकिन सब यह मानते, सत्य सनातन वेद।।
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रविवार, 20 नवंबर 2016
दोहे "कुण्ठा भरे विचार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मगर काम की कामना, मन में है बलवान।।
--
बढ़ती ज्यों-ज्यों है उमर, त्यों-त्यों बढ़ती प्यास।
कामी भँवरे की नहीं, पूरण होती आस।।
--
लेखन में लिखते गुरू, कुण्ठा भरे विचार।
चेले उनके भी वही, करते अंगीकार।।
--
जितना मिला नसीब से, अधिक रहे हैं माँग।
मीठे जल के कूप में, घोल रहे हैं भाँग।।
--
माना भरा दिमाग में, शब्दों का है कोश।
लेकिन अपने ज्ञान से, फिर भी हैं मदहोश।।
--
लिखकर सत्-साहित्य को, सफल करो यह लोक।
इस जीवन के साथ में, सुधरेगा परलोक।।
--
जीवन थोड़ा है बचा, करलो अच्छे काम।
मर जाने के बाद भी, अमर रहेगा नाम।।
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शनिवार, 19 नवंबर 2016
आल्हा (वीरछन्द) "मोदी का फरमान" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
काले धन को रखने वालो,
सुनो खोलकर अपने कान।
ना खाया ना खाने दूँगा,
ये है मोदी का फरमान।।
--
बड़े नोट सब बन्द कर दिये,
किया अचानक यह ऐलान।
सन्न रह गयी पूरी दुनिया,
आपस में है खींचातान।।
--
माया और मुलायम बोले,
लग जायेगी तुझको हाय।।
राजनीति के कुशल खिलाड़ी,
मोदी तेरा बुरा हो जाय।
--
सड़कों पर अब लगे घूमने,
राहुल और केजरीवाल।
क्या होगा काले धन का अब,
मन में है बस यही मलाल।।
--
कलकत्ता से दिल्ली तक अब,
ममता बैनर्जी चिल्लाय।
कोस रहे हैं आज विरोधी,
सुर में सुर सब रहे मिलाय।।
--
सही दिशा में ठोस पहल है,
लेकिन जनता है हलकान।
पैसा सबको मिले बैंक में,
नियम करो कुछ तो आसान।।
--
बहुत दुखी करते जनता को,
अफरा-तफरी के कानून।
बैंकों में हैं लगीं कतारें,
आपाधापी और जुनून।।
--
आम जरूरत के नोटों को,
छपवा लेते पहले आप।
दूरदर्शिता की शासक के,
तभी दिखाई देती छाप।।
|
दोहे "करते दिल पर वार" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सीधे-सादे शब्द हैं, दोहों का आधार।
चमत्कार के फेर में, होता बण्टाधार।।
--
बड़े-बड़े जो छन्द हैं, उनका केवल नाम।
थोड़े शब्दों में करे, दोहा अपना काम।।
--
लेखन अगर सटीक हो, होगी पैनी धार।
दिल से निकले शब्द ही, करते दिल पर वार।।
--
अपने बिल में रेंगकर, सीधा चलता सर्प।
योगी और महान को, खा जाता है दर्प।।
--
साथ सरलता के सदा, रहता आदर-भाव।
जहाँ कुटिलता हो वहाँ, इसका रहे अभाव।।
--
सुलभ सभी कुछ है यहाँ, दुर्लभ बिन तदवीर।
कामचोर ही खोजते, दुनिया में तकदीर।।
--
तानाशाही से लुटी, बड़ी-बड़ी जागीर।
जनमत के आगे नहीं, टिकटी है शमशीर।।
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