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संरक्षण मिलता वहाँ, जहाँ रहे अपनत्व।।
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माता से बढ़कर नहीं, जग में कोई उदार।
माता के जैसा नहीं, करता कोई प्यार।।
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खुला हुआ सबके लिए, माता जी का द्वार।
भेट-चढ़ावे की नहीं, माता को दरकार।।
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जगदम्बा के सदन में, भरा हुआ भण्डार।
सच्चे मन से माँग लो, माता से उपहार।।
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मन्दिर में जाकर कभी, करना मत उपहास।
जगतनियन्ता ईश का, कण-कण में है वास।।
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सरिता में चलती नहीं, कभी पाप की नाव।
वैसा मिलता है उसे, जैसा जिसका भाव।।
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योगदान जिनका नहीं, वो ही करें सवाल।
ठेकेदारों ने किया, दूषित जल का ताल।।
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सोमवार, 28 नवंबर 2016
दोहे "माता का दरबार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ...
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