मित्रों!
आज श्रद्धाञ्जलि के रूप में अपने अभिन्न मित्र
स्व. गुरु सहाय भटनागर 'बदनाम'
की एक ग़ज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ
आदमी
फिर ज़िन्दगी के बोझ से मरता रहा
आदमी
है आदमी को देखकर हँसता रहा
इक
तरफ़ जीना था मुश्किल घर में थी मजबूरियाँ
फिर
भी एक इंसान जाम-ए-मय में था ढलता रहा
इक
किरन राहत की उसके दर तलक पहुँची नहीं
आदमी
फिर आदमी को रोज ही छलता रहा
उसका
घर फ़ाकाकशी मजबूरियों से था घिरा
कैसी
किस्मत थी कि वो उरियाँ बदन चलता रहा
भूख
का सौदा जिसे अस्मत लुटा करना पड़ा
बोझ
मायूसी का लादे उम्र भर चलता रहा
ऐ
गरीबी अब तेरा मैं कर चुका हूँ शक्रिया
मुफ़लिसी
के साए में अपना सफ़र चलता रहा
ज़ुल्म
की टहनी कभी सर-सब्ज़ हो पाती नहीं
दिल
तो फिर ‘बदनाम’ का दुख देखकर
जलता रहा
|
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सोमवार, 15 अक्तूबर 2018
ग़ज़ल "मुफ़लिसी के साए में अपना सफ़र चलता रहा" (गुरु सहाय भटनागर 'बदनाम')
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जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब शेर ...
जवाब देंहटाएंहक़ीक़त के क़रीब ... बधाई