सरदी अब घटने लगी, चहका है मधुमास।
खेतों से नव-अन्न की, आने लगी सुवास।।
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बया नीड़ से झाँकती, अपने चारों ओर।
हरित धरा पर हो गयी, अब तो सुन्दर भोर।।
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धूम मचाने आ गया, फिर से अब ऋतुराज।
बदल गया मधुमास में, सबका आज मिजाज।।
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जोड़ों पर चढ़ने लगा, फिर से इश्क बुखार।
वादों की चलने लगी, अब तो मस्त बयार।।
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लगा पिघलने हिमालय, बहता शीतल नीर।
काँवड़ लेने जायेंगे, अब बहनों के वीर।।
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मौसम आवारा हुआ, उमड़ रहा है प्यार।
नेह-नीर का पान कर, फूल बने उपहार।।
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बिखरे चारों ओर हैं, प्रेम-दिवस के रंग।
दकियानूसी लोग तो, करें रंग में भंग।।
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मंगलवार, 5 फ़रवरी 2019
दोहे "बहता शीतल नीर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह शास्त्रीजी बसन्त के आगमन का आभास कराते सुंदर दोहे।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सृजन आदरणीय
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत सुन्दर दोहे...
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंवसन्त जैसा ही शीतल सुरभित मनोरम वर्णन -मन में सारे आभास जगा देता है.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ,,,मनमोहक ,सादर नमस्कार सर ,आप को होली की हार्दिक बधाई
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