दिल से निकले ज़द्बातों की शायरी
“सब्र का इम्तिहान बाकी है”
अभी कल ही की तो बात है। मैं तीन
पुस्तकों के विमोचन के कार्यक्रम में सम्मिलित हुआ। जिनमें डॉ. सुभाष वर्मा कृत
कत्आत और ग़ज़लों का एक संग्रह “सब्र का इम्तिहान बाकी है” भी था। कार्यक्रम
में ही मैंने इस पुस्तक का अधिकांश भाग बाँच लिया था। मैं आजकल भुलक्कड़ किस्म का
हूँ इसलिए मन में विचार आया कि क्यों न सबसे पहले इसी पुस्तक के बारे में कुछ
लिखा जाये। डेस्कटॉप पर बैठा और मेरी उँगलियाँ की-बोर्ड पर चलने लगी।
अगर देखा जाये तो हमारे आस-पास और दुनियाभर
में एक से बढ़कर एक विद्वान हैं मगर सबमें लेखन और कवित्व नहीं होता है। कुदरत
की यह देन बहुत कम लोगों में ही पाई जाती है। ऐसी ही एक शख्शियत का नाम सुभाष
वर्मा सुखन भी है। राजकीय महाविद्यालय, सितारगंज के प्राचार्य के रूप में
कार्यरत डॉ. सुभाष वर्मा से मेरा परिचय लगभग दो वर्ष पूर्व हुआ था। किसी मित्र
ने कहा कि सुभाष वर्मा एक अच्छे सुखनवर हैं। इसलिए मैं इनसे मिलने के लिए स्वयं
ही इनके कॉलेज में चला गया। बातचीत में मुझे आभास हुआ कि ये न केवल एक
शिक्षाशास्त्री हैं बल्कि एक अच्छे शायर और मिलनसार व्यक्ति भी हैं। इस संग्रह
में आपने लिखा भी है-
“थोड़ी ग़ज़लें चन्द कत्आत
सीधी-सादी अपनी बात
मिसरे खुद ही बन पड़ते हैं
वरना अपनी क्या औकात”
उक्त मुक्तक इनके ऊपर बिल्कुल खरा उतरता
है। आम बोलचाल के सीधे-सादे शब्द ही इस कृति की विशेषता है जो पाठक के दिल में
गहराई से उतरते जाते हैं।
किताब महल द्वारा प्रकाशित 96 पृष्ठ के पेपरबैक
संस्कण का मूल्य मात्र 95 रुपये रखा गया है। जिसे आम आदमी भी खरीदकर पढ़ सकता
है।
“सब्र का इम्तिहान बाकी है” नामक इस संग्रह को शायर ने दो भागों में
विभक्त किया है। पहले भाग को “कत्आत खण्ड” नाम दिया गया है जिसमें 123
बेहतरीन मुक्तक हैं और दूसरे भाग को “ग़ज़ल खण्ड” नाम दिया है जिसमें 46
ग़ज़लें है।
“सब्र का इम्तिहान बाकी है” की शुरुआत
सुखनवर ने एक सीख देते हुए एक सशक्त मुक्तक से की है-
“चाहे हिन्दू की मसीही या मुसलमान रहे
ये जरूरी है कि हर आदमी इंसान रहे
वक्त कैसा भी बुरा हो वो बुराई से बचे
यानि हर हाल में बस साहिबे ईमान रहे”
डॉ. सुखन
के मुक्तकों में एक ऐसी कशिश है जो पाठक को आह्लादित ही नहीं करती अपितु एक
सन्देश भी देती है-
“हर चीज जमाने में जमाने के लिए है
इक तू है कि बस मुझको सताने के लिए है
तू जुल्म न करता तो मैं ये शेर न कहता
अहसां है तेरा कुछ तो सुनाने के लिए है”
इसी मिजाज का उनका यह कता भी काबिले
गौर है-
“दिल से दिल तक तो मेरी सदा पहुँचेगी
आह पहुँचेगी कि आवाजे वफा पहुँचेगी
मुझको इतना तो यकीं है कि मेरी बेचैनी
बनके परियादे सुखन अर्श पे जा पहुँचेगी”
शायर ने पाठक को वर्जना करते हुए लिखा
है-
“लोरिया मत गा जमाने को सुलाने के लिए
जागरण के गीत गा सबको जगाने के लिए
दर्द सारा आँसुओं में बहा देगा सुखन
पास तेरे क्या बचेगा गुनगुनाने के लिए”
इस
संकलन में जितने भी मुक्तक हैं उन सबमें कहीं एक शिक्षा जरूर दी गई है। देखिए
उनका यह मुक्तक-
“नफरत की बात कर न अदावत की बात कर
ऐ दोस्त कर सके तो मुहब्बत की बात कर
ख्वाबों की ऐशगाह से बाहर निकल के आ
अब आग लग चुकी है हिफाजत की बात कर”
प्रशंसा उन्हीं अशआरों की होती हैं जो
दिल में सीधे ही उतर जायें। ऐसा ही एक कता निम्नवत् है-
“किसी ने आरती कर ली किसी ने बन्दगी कर ली
मगर मैं आशिकों में था तो मैंने आशिकी कर ली
सुना है आरती औ बन्दगी बेजा गयी उनकी
मगर हम हैं कि हासिल दो घड़ी में हर खुशी कर ली”
--
“अखलाख घट रहा है रिश्ते सिकुड़ रहे हैं
बढ़ने की होड़ में अब कुनबे बिछड़ रहे हैं
यूँ तख्त हो चुका है इंसान का जिगर अब
ये तीरे मुहब्बत में टकरा के मुड़ रहे हैं”
शायरी के इस उपयोगी संग्रह “सब्र का
इम्तिहान बाकी है” का दूसरा भाग ग़ज़ल खण्ड है, जिसकी हर एक नज्म बहुत
ही दिलकश है। शायर ने इस भाग की शुरुआत इस ग़ज़ल से की है-
“पेशे खिदमत है मेरी ताजा ग़ज़ल
एकदम सीधी बहुत सादा गजल
अपनी आँखें खुश्क हैं तो क्या सुखन
गैर के अश्कों से छलका जा गजल”
संग्रह की एक और ग़ज़ल को भी देखिए,
जो पाठक को इस कृति को सांगोपांग पढ़ने का मजबूर कर देगी-
“जब तक जाँ में जान नहीं है
मुस्काना आसान नहीं है
ब्याज सहित लौटा देगा सब
समय तो बेईमान नहीं है”
“सब्र का इम्तिहान बाकी है” की ग़ज़लों
जीवन की परिभाषा भी है। देखिए निम्न ग़ज़ल के दो शेर-
“हर खुशी बेवफा हो गई
जिन्दगी बेमजा हो गई
मौत की अब जरूरत है क्या
जिन्दगी ही कजा हो गई”
इसी मिजाज की की एक और ग़ज़ल है-
“सुख न जिसको मिला उम्र भर
वो सुखन में हुआ तर-ब-तर
वो मिला ना मिला उसका घर
बस भटकते रहे दर-ब-दर”
काव्य की सबसे बड़ी खूबी होती है शब्द
चयन जिसमें “सुखन” हर हज़रिए से सफल रहा है-
“कुछ सपने बेकार हो गये
कुछ सपने साकार हो गये
कुछ सपने वीभत्स हो गये
कुछ सपने शृंगार हो गये”
मजमुआ में सभी ग़ज़ल एक से बढ़कर एक हैं अन्त
में इस ग़जल का भी उल्लेख जरूरी है-
“जब तलक कश-म-कश नहीं होती
जिन्दगी, जिन्दगी नहीं होती
तुम न करते तो कोई और सही
अपनी दुर्गत तो लाजमी होती”
ग़ज़ल प्रेमी प्रेमिका का बातचीत ही
नहीं होती अपितु समाज में जो घट रहा होता है उसका इजहार करना भी ग़ज़लकार का
दायित्व होता है। इसीलिए ग़ज़ल को उर्दू साहित्य की एक प्रमुख विधा माना गया है।
काव्य की इन्हीं खूबियों के कारण हिन्दी में भी ग़ज़ल या गीतिका एक लोकप्रिय विधा बन गयी है। डॉ. सुभाष
वर्मा सुखन ने अपनी ग़ज़लों और कत्आत में मौजूदा हालात के साथ-साथ पुरानी
रवायतों का भी वाखूबी निर्वहन किया है। “सब्र का इम्तिहान बाकी है” की शायरी अपने में एक समूचा प्रयोग है। जो सुखन की कलम से निकला है। जिसमें शायरी के अदब की सभी खूबियाँ
हैं।
मुझे आशा ही नहीं अपितु पूरा विश्वास भी
है कि “सब्र का इम्तिहान बाकी
है” की ग़ज़ले और कत्आत पाठकों के दिल को अवश्य छुएगीं बनायेगी और समीक्षकों के
लिए भी यह उपादेय सिद्ध होगी। इस उम्दा लेखन के लिए मैं सुखनवर को दिली
मुबारकवाद देता हूँ।
दिनांकः 21 अक्टूबर, 2019
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
समीक्षक
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कवि एवं साहित्यकार
टनकपुर-रोड, खटीमा
जिला-ऊधमसिंहनगर (उत्तराखण्ड) 262308
मोबाइल-7906360576
Website.
http://uchcharan.blogspot.com/
E-Mail .
roopchandrashastri@gmail.com
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सुंदर पुस्तक समीक्षा धीर गंभीर।
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