भूमिका "प्रीत का व्याकरण" 'प्रीत
का बहुआयामी सागर' (डॉ-
महेन्द्र प्रताप पाण्डेय ‘नन्द’) जाको
ताहि कुछ लहन की, चाह न लिए मैं होय। जयति
जगत पावन करन, प्रेम वरन यह दोय।। (भारतेन्दु) प्रीत
के संवाहक कवि आदरणीय डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ जी
की नौवीं पुस्तक ‘प्रीत का व्याकरण’ की पाण्डुलिपि पढ़ने के उपरान्त मुझे हिन्दी
साहित्य के प्रीत पगे गीतों का पूरा आनन्द प्राप्त हुआ। साहित्य की पुरातन
परिभाषा से लेकर अद्यतन परिभाषा तक "प्रीत का व्याकरण" (गीत संग्रह)
प्रीत के मानकों पर खरा उतरता है। सरल शब्दों, सामासिकता, हिन्दी, संस्कृत, उर्दू
मिश्रित शब्दावली तथा छन्द परिपाटी के निर्वहन से पुस्तक की सर्वग्राह्यता बढ़
गयी है। आज जहाँ छन्दमुक्त परम्पराओं में
साहित्यकारों का सर्वाधिक सरोकार बढ़ता जा रहा है वहीं डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ जी ने काव्य की आत्मा कहे जाने वाले रस, छन्द, अलंकार, यति, गति, तुक, विराम
जैसे तत्वों का प्रयोग कर रसप्रिय साहित्यप्रेमियों पर अनुकम्पा की है। संग्रह में देश प्रेम पर प्रीत की प्रचुरता
के साथ-साथ संयोग-वियोग शृंगार के गीत भी हैं। इतना ही नहीं प्रकृति के साथ
तादात्मय स्थापित करने वाले गीतों को विशेष स्थान प्रदान किया गया है। "करो
आचमन" गीत में चट्टानों द्वारा सन्देश की बात कुछ ऐसे कही गयी
है- ‘‘सख्त चट्टान पल में
दरकने लगी, जल
की धारा के सँग में लुढ़कने लगी, छोड़
देना पड़ा कंकड़ों को वतन। जो
घमण्डी हैं उनका ही होता पतन।।’’ "कैसे बचे यहाँ गौरैया" गीत में
कवि ने पशु-पक्षियों के विलुप्तिकरण के कारण को स्पष्ट करते हुए लिखा है- ‘‘अन्न उगाने के लालच में, जहर
भरी हम खाद लगाते, खाकर
जहरीले भोजन को, रोगों
को हम पास बुलाते, घटती
जाती हैं दुनिया में, अब
अपनी प्यारी गौरय्या। दाना-दुनका
खाने वाली, कैसे
बचे यहाँ गौरय्या।।’’ जहाँ "गीत बन जाऊँगा" में गेयता
उत्कृष्टतम है वहीं "शब्दों के मौन निमन्त्रण" में शब्दों के सरोकार
को सहजतया बहुत सुरीले अंदाज में प्रकट किया गया है। ‘‘उनके बिन बात अधूरी है, नजदीकी
में भी दूरी है। दुनियादारी
में पड़ करके, बतियाना बहुत जरूरी है।।’’ यथा नाम तथा गुण के वश में आए कवि मयंक जी
ने लिखा है- ‘‘बाँटता ठण्डक सभी को, चन्द्रमा
सा रूप मेरा। तारकों
ने पास मेरे, बुन लिया घेरा-घनेरा।।’’ प्रीत की रीत को लिखने और समझने में चतुर
कवि ने "पा जाऊँ यदि प्यार तुम्हारा" गीत में प्यार की विशद व्यंजना
को परिलक्षित कर अदृश्य शक्ति की ओर ध्यान दिलाया है। "घरौंदे रेत में"
रचना कलियुगी आचार व्यवहार को दर्शाती है। स्वदेशी वस्तुओं के प्रति प्रीत और गुणवत्ता
में प्रीत की बात "तपते रेगिस्तानों में" नामक गीत में दिख जाती है तो वहीं "कौन
सुनेगा सरगम के सुर" गीत में नरसंहार, शोषण, अत्याचार, कदाचार
की अधिकता यथार्थ का सटीक प्रयोग स्पष्ट दिखाई देता है। निम्न पंक्तियों में
अनेक सन्देश दृष्टव्य हैं- ‘‘चील जहाँ पर आस-पास ही पूरे दिन मंडराती हैं, नोच-नोच
कर मरे जीव को दिन भर खाती जाती हैं।’’ संग्रह
के उत्कृष्टतम गीतों में "आशायें मुस्काती हैं", प्रकृति चित्रण में, "गौरय्या का नीड़", "बादल आज शराबी" में बादलों का मानवीकरण, "ममता का आधार" में प्रीत के
विभिन्नरूपों तथा "प्रीत कहाँ से लाऊँ" में प्रीत के अनेक प्रश्न
चिह्न का सांगोपांग चित्रण किया गया है। "उलट-पलट कर देख जरा" गीत की पंक्तियों
में कवि ने लिखा है- "हर
सिक्के के दो पहलू हैं, उलट-पलट कर देख जरा। बिन
परखे क्या पता चलेगा, किसमें कितना खोट भरा।।" "रूप मैला हो गया है" में तो कवि
ने मानवता को लताड़ लगाते हुए कहा है- ‘‘आदमी के दाँत पैने हो गये हैं। मनुज
के सिद्धान्त सारे खो गये हैं।। बस्तियों
का ढंग वनैला हो गया है। मधुर
केला भी कसैला हो गया है।।’’ क्या लिखूँ अब गजल, देख
नजारा, रूप बदलते देखा है, वक्त पुराना बीत गया,
जैसे गीत, कवि की घोर पीड़ा को अभिव्यक्त करते हैं तो नया
घाघरा, बूटा एक कनेर का, अमलतास
के पीले झूमर, फूल बसन्ती आने वाले, जी
रहे पेड़-पौधे हमारे लिए, प्रकृति सुषमा को समेटे हुए जन-जन को सन्देश
प्रदान करने में सक्षम है। कवि का टोपी प्रेम इन पंक्तियों द्वारा मुखरित हो
उठता है- ‘‘सबसे न्यारी अपनी टोपी संविधान की पोषक है। मानवता
के लिए हमारी निष्ठा की उद्घोषक है।।’’ देशभक्ति में आई कमी को महसूस करते हुए कवि
ने लिखा है- ‘‘देशभक्त हो गये किनारे, चाटुकार
सरदार हो गये। नौका
को भटकाने वाले, ही अब खेवनहार हो गये।।’’ जहाँ ‘‘खिचड़ी खूब
पकाकर खाओ’’ गीत में कवि का ज्योतिषीय ज्ञान तथा वैचारिक
प्रवाह पूर्णतया मुखरित हो उठा है वहीं ‘‘पत्थर दिल कब
पिघलेंगे’’ गीत द्वारा सामाजिक विपन्नता, नैराश्य, शोषण-पतन
के लिए नेताओं पर करारा प्रश्नचिह्न लगाते हुए प्रहार किया गया है। अपनी कोमलहृदय
पदावली में रंजित होकर लेखकों के प्रति "शब्दों से कुश्ती" गीत में
कवि लिखता है- ‘‘लहू लेखनी में मेरी जब उमड़-घुमड़ कर आता है। शब्दों
से कुश्ती करने का दाँव-पेंच मिल जाता है।।’’ ‘प्रीत का व्याकरण’ संग्रह
की समस्त कविताएँ संग्रहणीय, पठनीय तथा चिन्तनीय हैं। आशा ही अपितु पूर्ण
विश्वास है कि ‘प्रीत का व्याकरण’ सही
मायने में प्रीत को समझाने में सार्थक सिद्ध होगा। जिससे पाठक अपनी विभिन्न
स्तरीय प्रीत को समझ सकेंगे तथा आदर्श चारित्रिक, नैतिक
एवं आध्यात्मिक राष्ट्रोन्नयन कर सकेंगे और समीक्षकों के दृष्टिकोण से भी उपादेय
सिद्ध होगा। अन्त में जनकवि डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ जी
के गीत "कण्टकाकीर्ण पथ" की पंक्ति ‘‘ढाई
आखर बिना है अधूरी गजल, प्यार के बिन अधूरे प्रणय गीत हैं’’ की
तरफ ध्यान दिलाते हुए उनके इस सफलतम प्रयास हेतु हृदय की गहराइयों से शुभकामनाएँ
प्रेषित करता हूँ। कवि का जीवन सुदीर्घ तथा यशस्वी हो एवं पुस्तक जन-जन तक पहुँच
कर अपना और मयंक का आलोक आलोकित करे। अनन्त शुभ कामनाओं के साथ। डॉ.
महेन्द्र प्रताप पाण्डेय 'नन्द' महासचिव साहित्य
शारदा मंच, खटीमा सम्पर्क-9410161626 |
बहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएं‘प्रीत का व्याकरण’नामक पुस्तक हेतु असीम शुभकामनाओं के संग हार्दिक बधाई व वन्दन
जवाब देंहटाएंसुन्दर भूमिका लेखन
बहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
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