बीत रहा है साल पुराना, कल की बातें छोड़ो।
फिर से अपना आज सँवारो, सम्बन्धों को जोड़ो।।
आओ दृढ़ संकल्प करें, गंगा को पावन करना है,
हिन्दी की बिन्दी को, माता के माथे पर धरना है,
जिनसे होता अहित देश का, उन अनुबन्धों को तोड़ो।
फिर से अपना आज सँवारो, सम्बन्धों को जोड़ो।।
नये साल में पनप न पाये, उग्रवाद का कीड़ा,
जननी-जन्मभूमि की खातिर, आज उठाओ बीड़ा,
पथ से जो भी भटक गये हैं, उन लोगों को मोड़ो।
फिर से अपना आज सँवारो, सम्बन्धों को जोड़ो।।
मानवता की बगिया में, इंसानी पौध उगाओ,
खुर्पी ले करके हाथों में, खरपतवार हटाओ,
रस्म-रिवाजों के थोथे, अब चाल-चलन को तोड़ो।
फिर से अपना आज सँवारो, सम्बन्धों को जोड़ो।।
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बुधवार, 31 दिसंबर 2014
"कल की बातें छोड़ो" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक)
मंगलवार, 30 दिसंबर 2014
"शीतल पवन बड़ी दुखदाई" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक)
पवन बसन्ती बाट जोहती,
कब लेगा मौसम अँगड़ाई।
लहराते गेहूँ के बिरुए,
शीतल पवन बड़ी दुखदाई।।
पर्वत पर हिम जमा हुआ है,
निर्झर भी तो थमा हुआ है,
मार पड़ी सब पर कुहरे की,
सबकी होती हाड़ कँपाई।
लहराते गेहूँ के बिरुए,
शीतल पवन बड़ी दुखदाई।।
धरती पर शीतल छाया है,
सूरज नभ में शर्माया है।
शाखाएँ सुनसान पड़ी हैं,
कोई चिड़िया नज़र न आई।
लहराते गेहूँ के बिरुए,
शीतल पवन बड़ी दुखदाई।।
डरा हुआ उपवन का माली,
सिमट गयी है सब हरियाली,
देख दशा सुमनों की ऐसी,
भँवरों ने गुंजार मचाई।
लहराते गेहूँ के बिरुए,
शीतल पवन बड़ी दुखदाई।।
लुप्त हुआ है "रूप" सलोना,
कुहरे का हैं बिछा बिछौना,
सहमी-सहमी सी मधुमक्खी,
भिन्न-भिन्न करके मँडराई।
लहराते गेहूँ के बिरुए,
शीतल पवन बड़ी दुखदाई।।
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"हिन्दी ग़ज़लिका-प्रभा के साथ तम क्यों है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक)
विभा की आँख नम क्यों है
प्रभा के साथ तम क्यों है
समझ में कुछ नहीं आता
खुशी के साथ ग़म क्यों है
सभी कुछ पास है फिर भी
दिलों में प्यार कम क्यों है
जुबां में ग़र नहीं हड़्डी
तो सुर में भरा दम क्यों है
मिला है “रूप” आदम का
तो शैतानी अहम क्यों है
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सोमवार, 29 दिसंबर 2014
"कैसे मन को सुमन करूँ मैं?" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक)
सब कुछ वही पुराना सा है!
कैसे नूतन सृजन करूँ मैं?
कभी चाँदनी-कभी अँधेरा,
लगा रहे सब अपना फेरा,
जग झंझावातों का डेरा,
असुरों ने मन्दिर को घेरा,
देवालय में भीतर जाकर,
कैसे अपना भजन करूँ मैं?
कैसे नूतन सृजन करूँ मैं?
वो ही राग-वही है गाना,
लाऊँ कहाँ से नया तराना,
पथ तो है जाना-पहचाना,
लेकिन है खुदगर्ज़ ज़माना,
घी-सामग्री-समिधा के बिन,
कैसे नियमित यजन करूँ मैं?
कैसे नूतन सृजन करूँ मैं?
बना छलावा पूजन-वन्दन
मात्र दिखावा है अभिनन्दन
चारों ओर मचा है क्रन्दन,
बिखर रहे सामाजिक बन्धन,
परिजन ही करते अपमानित,
कैसे उनको सुजन करूँ मैं?
कैसे नूतन सृजन करूँ मैं?
गुलशन में पादप लड़ते हैं,
कमल सरोवर में सड़ते हैं,
कदम नहीं आगे बढ़ते हैं,
पावों में कण्टक गड़ते है,
पतझड़ की मारी बगिया में,
कैसे मन को सुमन करूँ मैं?
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रविवार, 28 दिसंबर 2014
"नवगीत-राह को बुहार लो" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
झाड़ुएँ सवाँर लो।
राह को बुहार लो।।
वक्त आज आ गया
“रूप” आज भा गया
आदमी सुवास की
राह आज पा गया
लक्ष्य को पुकार लो।
झाड़ुएँ सवाँर लो।
ढंग नये आ गये
रंग नये छा गये
आज फिर समाज को
संग नये भा गये
केँचुली उतार लो।
राह को बुहार लो।।
भा गयीं निशानियाँ
छा गयीं कहानियाँ
जिन्दगी की धार में
आ गयी रवानियाँ
“रूप” को निखार लो।
राह को बुहार लो।।
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शनिवार, 27 दिसंबर 2014
"दोहे-ब्लॉगिंग के पश्चात ही, फेसबूक को देख" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
फेसबूक पर आ गये, अब तो सारे मित्र।
हिन्दी ब्लॉगिंग की हुई, हालत बहुत विचित्र।१।
लगा रहे हैं सब यहाँ, अपने मन के चित्र।
अच्छे-अच्छों का हुआ, दूषित यहाँ चरित्र।२।
बेगाने भी कर रहे, अपनेपन से बात।
अपने-अपने ढंग से, मचा रहे उत्पात।३।
लेकिन ब्लॉगिंग में नहीं, फेसबुकी आनन्द।
बतियाने के रास्ते, वहाँ सभी हैं बन्द।४।
लिखते ही पाओ यहाँ, टिप्पणियाँ तत्काल।
टिप्पणियों को तरसते, ब्लॉग हुए बेहाल।५।
--
ब्लॉक नहीं होता कभी, ब्लॉगिंग का संसार।
धैर्य और गम्भीरता, ब्लॉगिंग का आधार।६।
ब्लगिंग देती वो मज़ा, जैसा दे सत्संग।
यहाँ डोर मजबूत है, ऊँची उड़े पतंग।७।
इन्द्रधनुष से हैं यहाँ, प्यारे-प्यारे रंग।
ब्लॉगिंग में चलते नहीं, नंगे और निहंग।८।
लेख और रचनाओं को, गूगल रहा सहेज।
समझदार करते नहीं, ब्ल़गिंग से परहेज।९।
भले चलाओ फेसबुक, ओ ब्लॉगिंग के सन्त।
मगर ब्लॉग के क्षेत्र का, कभी न होगा अन्त।१०।
पहले लिक्खो ब्लॉग में, रचनाएँ-आलेख।
ब्लॉगिंग के पश्चात ही, फेसबूक को देख।११।
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शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014
"नयासाल-एक दोहा और गीत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आयेगा इस वर्ष
भी, नया-नवेला साल।
आशाएँ फिर से
जगीं, सुधरेंगे अब हाल।।
--
नव-वर्ष खड़ा
द्वारे-द्वारे!
नव-वर्ष खड़ा
द्वारे-द्वारे!
गधे चबाते हैं
काजू,
महँगाई खाते
बेचारे!!
काँपे माता
काँपे बिटिया, भरपेट न जिनको भोजन है,
क्या सरोकार
उनको इससे, क्या नूतन और पुरातन है,
सर्दी में फटे
वसन फटे सारे!
नव-वर्ष खड़ा
द्वारे-द्वारे!!
जो इठलाते हैं
दौलत पर, वो खूब मनाते नया-साल,
जो करते श्रम
का शीलभंग,वो खूब कमाते द्रव्य-माल,
वाणी में केवल
हैं नारे!
नव-वर्ष खड़ा
द्वारे-द्वारे!!
नव-वर्ष हमेशा
आता है, सुख के निर्झर अब तक न बहे,
सम्पदा न लेती
अंगड़ाई, कितने दारुण दुख-दर्द सहे,
मक्कारों के
वारे-न्यारे!
नव-वर्ष खड़ा
द्वारे-द्वारे!!
रोटी-रोजी के
संकट में, नही गीत-प्रीत के भाते हैं,
कहने को अपने
सारे हैं, पर झूठे रिश्ते-नाते हैं,
सब स्वप्न हो
गये अंगारे!
नव-वर्ष खड़ा
द्वारे-द्वारे!!
टूटा तन-मन भी
टूटा है, अभिलाषाएँ बस जिन्दा हैं,
आयेगीं जीवन
में बहार, यह सोच रहा कारिन्दा हैं,
कब चमकेंगें नभ
में तारे!
नव-वर्ष खड़ा
द्वारे-द्वारे!!
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गुरुवार, 25 दिसंबर 2014
"यीशू-सलीबों को जिसने अपनाया" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बुधवार, 24 दिसंबर 2014
"कंजूस मधुमक्खी" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
शहद बनाना काम तुम्हारा।।
छत्ते में मधु को रखती हो।
कभी नही इसको चखती हो।।
कंजूसी इतनी करती हो।
रोज तिजोरी को भरती हो।।
दान-पुण्य का काम नही है।
दया-धर्म का नाम नही है।।
इक दिन डाका पड़ जायेगा।
शहद-मोम सब उड़ जायेगा।।
मिट जायेगा यह घर-बार।
लुट जायेगा यह संसार।।
जो मिल-बाँट हमेशा खाता।
कभी नही वो है पछताता।।
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