सिर छिपाने के लिए, इक शामियाना चाहिए
प्यार पलता हो जहाँ, वो आशियाना चाहिए
राजशाही महल हो, या झोंपड़ी हो घास की
सुख मिले सबको जहाँ, वो घर बनाना चाहिए
दाँव भी हैं-पेंच भी हैं, प्यार के इस खेल
में
इस पतंग को, सावधानी से उड़ाना चाहिए
मुश्किलों से है भरी, ये ज़िन्दग़ानी की डगर
आखिरी लम्हात तक, रिश्ता निभाना चाहिए
जोड़ना मुश्किल बहुत है, तोड़ना आसान है
सभ्यता का आचरण, सबको दिखाना चाहिए
चार दिन की चाँदनी है, फिर अँधेरी रात है
घर सभी का रौशनी से, जगमगाना चाहिए
आइना दिल का मिला है, देख गर्दन को झुका
“रूप” के अभिमान को, अपने हटाना चाहिए
|
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बुधवार, 3 दिसंबर 2014
"ग़ज़ल-आशियाना चाहिए" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुंदर गज़ल...वाह..।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 4-12-2014 को चर्चा मंच पर गैरजिम्मेदार मीडिया { चर्चा - 1817 } में दिया गया है
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
बहुत सार्थक ग़ज़ल !
जवाब देंहटाएंkuch dino se upasthit nahi ho paaye kisi karanwash aaj aapke blog par aane ka smay milate hi chale aaye bahut hi sunder gazal parish ki hai APne ......umdaa
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