इक पुराना पेड़ है अब भी है हमारे गाँव में।
चाक-ए-दामन सी रहा अब भी हमारे गाँव में।।
सभ्यता के ज़लज़लों से लड़ रहा है रात-दिन,
रंज-ओ-ग़म को पी रहा अब भी हमारे गाँव में।
मिल रही उसको तसल्ली देखकर परिवार को,
इसलिए ही जी रहा अब भी हमारे गाँव में।
जानता है ज़िन्दगी की हो रही अब साँझ है,
हाड़ अपने धुन रहा अब भी हमारे गाँव में।
“रूप” में ना नूर है, तेवर नहीं अब वो रहे,
थान मखमल बुन रहा अब भी हमारे गाँव में।
|
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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शनिवार, 31 मई 2014
"ग़ज़ल-तेवर नहीं अब वो रहे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक)
शुक्रवार, 30 मई 2014
"ग़ज़ल-मुहब्बत कौन करता है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
खुदा की
आजकल, सच्ची इबादत कौन करता है
बिना मतलब
ज़ईफों से, मुहब्बत कौन करता है
शहादत दी
जिन्होंने, देश को आज़ाद करने को,
मगर उनकी
मज़ारों पर, इनायत कौन करता है
सियासत
में फक़त है, वोट का रिश्ता रियाया से
यहाँ मज़लूम
लोगों की, हिमायत कौन करता है
मिला ओहदा
उज़ागर हो गयी, करतूत अब सारी
वतन को
चाटने में, अब रियायत कौन करता है
ग़रज़ जब
भी पड़ी तो, ले कटोरा भीख का आये
मुसीबत
में गरीबों की, हिफ़ाजत कौन करता है
सजीले “रूप”
की चाहत में, गुनगुन गा रहे भँवरे
कमल के बिन सरोवर पर, इनायत कौन
करता है |
गुरुवार, 29 मई 2014
बुधवार, 28 मई 2014
"नया सृजन होता है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जो पीड़ा में
मुस्काता है, वही सुमन होता है
नयी सोच के साथ
हमेशा, नया सृजन होता है
जब आतीं घनघोर
घटायें, तिमिर घना छा जाता
बादल छँट जाने पर
निर्मल, नीलगगन होता है
भाँति-भाँति के रंग-बिरंगे, जहाँ फूल खिलते हों
भँवरों का उस गुलशन
में, आने का मन होता है
किलकारी की गूँज
सुनाई दे, जिस गुलशन में
चहक-महक से भरा
हुआ. वो ही आँगन होता है
हो करके स्वच्छन्द
जहाँ, खग-मृग विचरण करते
हों
सबसे सुन्दर और
सलोना, वो मधुवन होता है
जगतनियन्ता तो धरती
के, कण-कण में बसता है
चमत्कार जो दिखलाता
है, उसे नमन होता है
कुदरत का तो पल-पल में ही, 'रूप' बदलता जाता
जाति-धर्म की
दीवारों से, बड़ा वतन होता है
|
सोमवार, 26 मई 2014
"स्वप्न जाते नहीं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
छन्द आते नहीं, भाव आते हैं जब।
भाव आते नहीं, गीत गाते हैं जब।।
देखने नेह को, जब गये खेत में,
बूँद बारिश की, गुम हो गई रेत में,
मीत आते नही, हम बुलाते हैं जब।
भाव आते नहीं, गीत गाते हैं जब।।
दिल धड़कता बहुत, मखमली बात में,
मन फड़कता बहुत, नेह-जज्बात में,
गुनगुनाते नही, पास आते हैं जब।
भाव आते नहीं, गीत गाते हैं जब।।
मुस्कराते तो हैं, खिलखिलाते नहीं,
टिमटिमाते तो हैं, जगमगाते नहीं,
स्वप्न जाते नहीं, याद आते हैं जब।
भाव आते नहीं, गीत गाते हैं जब।। |
रविवार, 25 मई 2014
"प्रभू को प्रणाम" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मित्रों।
सबसे पहले प्रभू को प्रणाम। मेरी श्रीमती जी का ट्यूमर का ऑपरेशन सफल हुआ है। आप सभी मित्रों का हार्दिक धन्यवाद और आभार। आपने मेरी जीवन संगिनी के लिए शुभकामनाएँ व्यक्त कीं। उसका ही परिणाम है कि अब वो खतरे से बाहर हैं। --सुप्रभात। आप सभी का दिन मंगलमय हो। सूर्यदेवता आपके जीवन पथ को आलोकित करें।
गुस्सा-प्यार और मनुहार
आँखें कर देतीं इज़हार
नफरत-चाहत की भाषा का
आँखों में संचित भण्डार
बिन काग़ज़ के, बिना क़लम के
लिख देतीं सारे उद्गार
नहीं छिपाये छिपता सुख-दुख
करलो चाहे यत्न हजार
पावस लगती रात अमावस
हो जातीं जब आँखें चार
नहीं जोत जिनकी आँखों में
उनका है सूना संसार
“रूप” इन्हीं से जीवन का है
आँखें कुदरत का उपहार
|
शुक्रवार, 23 मई 2014
"कम्प्यूटर बन गई जिन्दगी" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कम्प्यूटर
बन गई जिन्दगी, अन्तरजाल
हुआ है तन।
जालजगत
के बिना कहीं भी, लगता
नहीं हमारा मन।।
जंगल
लगता बहुत सुहाना, पर्वत
अच्छे लगते हैं,
प्यारी-प्यारी
बातें करते, बच्चे
सच्चे लगते हैं,
सुन्दर-सुन्दर
सुमनों वाला, लगता
प्यारा ये उपवन।
जालजगत
के बिना कहीं भी, लगता
नहीं हमारा मन।।
सुख की
बातें-दुख की बातें, बेबाकी
से देते हैं,
भावों
के सम्प्रेषण से हम, अपना मन
भर लेते हैं.
आभासी
दुनिया में मिलता, हमको
कितना चैन-अमन।
जालजगत
के बिना कहीं भी, लगता
नहीं हमारा मन।।
ग़ाफ़िल, रविकर, भ्रमर, यहाँ पर
सुरभित सुमन खिलाते हैं,
उल्लू
और मयंक निशा में, विचरण
करने आते हैं,
पंकहीन
से कमल सुशोभित, करते
बगिया और चमन।
जालजगत
के बिना कहीं भी, लगता
नहीं हमारा मन।।
ताऊ
कभी-कभी दिख जाता, उड़नतश्तरी
दूर हुई,
आज फेसबुक के आगे, ब्लॉगिंग बिल्कुल
मज़बूर हुई,
अदा-सदा, वन्दना-कनेरी, महकाती
जातीं उपवन।
जालजगत
के बिना कहीं भी, लगता
नहीं हमारा मन।।
|
गुरुवार, 22 मई 2014
"ग़ज़ल-हाथ में नयी लकीर आ गयी" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
दर्पण में
उभरकर नयी तस्बीर आ गयी
किस्मत
के हाथ में नयी लकीर आ गयी
अच्छे
दिनों का ख़्वाब हक़ीक़त बनेगा अब
बूटी
में अब फ़क़ीर की तासीर आ गयी
मुद्दत के
बाद ताल में फिर खिल उठा कमल
लगता है
अब नसीब में जागीर आ गयी
हसरत से
आफ़ताब़ को सब देख रहे हैं
खुद
चलके अपने आप ही तकदीर आ गयी
देखेंगे
राम-राज की अब रोज़ झाँकियाँ
नज़रों में
उसी “रूप” की नज़ीर आ गयी
|
बुधवार, 21 मई 2014
"ग़ज़ल-सदारत कहाँ गयी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सन्तों की
सूफियों की इबारत कहाँ गयीं
वो
देवनागरी की सदारत कहाँ गयी
जो थी कभी
बुलन्द इमारत जहान में
दादा
हुजूर की वो जियारत कहाँ गयी
पर्बत से
आने वाली हवाएँ हैं मौन क्यों
अठखेलियों
के साथ शरारत कहाँ गयी
हाकिम हुए
मशगूल तिजारत के खेल में
नाजिर
तुम्हारी आज नजारत कहाँ गयी
कितना हुआ है “रूप” घिनौना समाज का
इल्मो-अदब
की आज महारत कहाँ गयी
|
मंगलवार, 20 मई 2014
"तुम्हीं साधना-तुम ही साधन" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
अन्तस् के कोमल भावों से,
करता
हूँ माँ का अभिनन्दन।
शब्दों
के अक्षत्-सुमनों से,
करता
हूँ मैं पूजन-वन्दन।।
नहीं जानता लिखना-पढ़ना,
नहीं
जानता रचना गढ़ना,
तुम
हो भाव जगाने वाली,
नये
बिम्ब उपजाने वाली,
मेरे
वीराने उपवन में
आ
जाओ माँ बनकर चन्दन।
शब्दों
के अक्षत्-सुमनों से,
करता
हूँ मैं पूजन-वन्दन।।
कितना
पावन माँ का नाता,
तुम
वाणी हो मैं उदगाता,
सुर
भी तुम हो, तान तुम्हीं हो,
गीत
तुम्हीं हो, गान तुम्हीं हो,
वीणा
की झंकार सुना दो,
तुम्हीं
साधना, तुम ही साधन।
शब्दों
के अक्षत्-सुमनों से,
करता
हूँ मैं पूजन-वन्दन।।
मुझको
अपना कमल बना लो,
सेवक
को माता अपना लो,
मेरी
झोली बिल्कुल खाली,
दूर
करो मेरी कंगाली,
ज्ञान
सिन्धु का कणभर दे दो,
करता
हूँ माता आराधन।
शब्दों
के अक्षत्-सुमनों से,
करता
हूँ मैं पूजन-वन्दन।।
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सोमवार, 19 मई 2014
2100वीं पोस्ट "झूमर से लहराते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
अमलतास के पीले गजरे, झूमर से लहराते हैं।
लू के गर्म थपेड़े
खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।।
ये मौसम की मार,
हमेशा खुश हो कर सहते हैं,
दोपहरी में क्लान्त
पथिक को, छाया देते रहते हैं,
सूरज की भट्टी में
तपकर, कंचन से हो जाते हैं।
लू के गर्म थपेड़े
खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।।
उछल-कूद करते मस्ती
में, गिरगिट और गिलहरी भी,
वासन्ती आभास कराती,
गरमी की दोपहरी भी,
प्यारे-प्यारे सुमन
प्यार से, आपस में बतियाते हैं।
लू के गर्म थपेड़े
खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।।
लुभा रहे सबके मन
को, जो आभूषण तुमने पहने,
अमलतास तुम धन्य, तुम्हें
कुदरत ने बख्शे हैं गहने,
सड़क किनारे खड़े
तपस्वी, अभिनव “रूप” दिखाते हैं।
लू के गर्म थपेड़े
खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।।
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रविवार, 18 मई 2014
"गाना तो मजबूरी है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जीवन के कवि सम्मेलन में, गाना तो मजबूरी है।
आये हैं तो कुछ कह-सुनकर, जाना बहुत जरूरी है।।
जाने कितने स्वप्न संजोए,
जाने कितने रंग भरे।
ख्वाब अधूरे, हुए न पूरे,
ठाठ-बाट रह गये धरे।
सरदी-गरमी, धूप-छाँव को, पाना तो मजबूरी है।
आये हैं तो कुछ कह-सुनकर, जाना बहुत जरूरी है।।
जितना आगे कदम बढ़ाया,
मंजिल उतनी दूर हो गयीं।
समरसता की कल्पनाएँ सब,
थककर चकनाचूर हो गयीं।
घिसी-पिटी सी रीत निभाना, जन-जन की मजबूरी है।
आये हैं तो कुछ कह-सुनकर, जाना बहुत जरूरी है।।
बचपन बीता, गयी जवानी,
सूरज ढलने वाला है।
चिर यौवन को लिए हुए,
मन सबका ही मतवाला है।
दरवाजों की दस्तक को, पढ़ पाना
बहुत जरूरी है।
आये हैं तो कुछ कह-सुनकर, जाना बहुत जरूरी है।।
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