अन्तस् के कोमल भावों से,
करता
हूँ माँ का अभिनन्दन।
शब्दों
के अक्षत्-सुमनों से,
करता
हूँ मैं पूजन-वन्दन।।
नहीं जानता लिखना-पढ़ना,
नहीं
जानता रचना गढ़ना,
तुम
हो भाव जगाने वाली,
नये
बिम्ब उपजाने वाली,
मेरे
वीराने उपवन में
आ
जाओ माँ बनकर चन्दन।
शब्दों
के अक्षत्-सुमनों से,
करता
हूँ मैं पूजन-वन्दन।।
कितना
पावन माँ का नाता,
तुम
वाणी हो मैं उदगाता,
सुर
भी तुम हो, तान तुम्हीं हो,
गीत
तुम्हीं हो, गान तुम्हीं हो,
वीणा
की झंकार सुना दो,
तुम्हीं
साधना, तुम ही साधन।
शब्दों
के अक्षत्-सुमनों से,
करता
हूँ मैं पूजन-वन्दन।।
मुझको
अपना कमल बना लो,
सेवक
को माता अपना लो,
मेरी
झोली बिल्कुल खाली,
दूर
करो मेरी कंगाली,
ज्ञान
सिन्धु का कणभर दे दो,
करता
हूँ माता आराधन।
शब्दों
के अक्षत्-सुमनों से,
करता
हूँ मैं पूजन-वन्दन।।
|
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मंगलवार, 20 मई 2014
"तुम्हीं साधना-तुम ही साधन" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह बहुत सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंsundar rachna .aabhar
जवाब देंहटाएंभक्ति भाव से ओत प्रोत बहुत खुबसूरत रचना !
जवाब देंहटाएंआपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवारीयचर्चा मंच पर ।
जवाब देंहटाएं