नदी के घाट पर हम भी, फिसल जाते तो अच्छा था।
महकता था चमन सारा, चहकता था हरेक बूटा,
चटकती शोख़ कलियों पर, मचल जाते तो अच्छा था।
पुरातनपंथिया अपनी, बनी थीं राह का रोड़ा,
नये उन रास्तों पर हम, निकल जाते तो अच्छा था।
मगर बन गोश्त का हलवा, हमें खाना नहीं आया,
सलीके से गरीबों को, निगल जाते तो अच्छा था।
मिली सौहबत पहाड़ों की, हमारा दिल हुआ पत्थर,
तपिश से प्रीत की हम भी, पिघल जाते तो अच्छा था।
जमा था “रूप” का पानी, हमारे घर के आँगन में,
घनी ज़ुल्फों के साये में, ग़ज़ल गाते तो अच्छा था।
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गुरुवार, 19 जून 2014
"फिसल जाते तो अच्छा था" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (20.06.2014) को "भाग्य और पुरषार्थ में संतुलन " (चर्चा अंक-1649)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंनायाब व बेहतरीन रचना , आदरणीय धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंशानदार रचना
जवाब देंहटाएंसटीक निशाने पर...सधे तीर...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंनौ रसों की जिंदगी !
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं