आया भादो मास है, कृष्ण सँवारो काज।।
मनुज दनुज अब बन गया, भूल गया है शील।
देख अकेली नार को, बात करे अशलील।।
भोली चिड़िया देखकर, झपट रहा है बाज।
हुआ बहुत लाचार अब, जंगल का अधिराज।।
ईंधन पर अब हो गयी, मँहगाई की मार।
देखो डीजल कर गया, सत्तर रुपया पार।।
जिनको मत अपना दिया, वो ही हैं अब मौन।
जनता के दुख-दर्द की, बात सुने तब कौन।।
सूखे आँसू आँख के, सूने-सूने नैन।
अच्छे दिन के लिए सब, अब तक हैं बेचैन।।
कल सूखे का कोप था, आज बाढ़ की मार।
है कुदरत के सामने, शासन भी लाचार।।
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"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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शुक्रवार, 31 अगस्त 2018
दोहे "कृष्ण सँवारो काज" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
गुरुवार, 30 अगस्त 2018
गीत "अपनी हिन्दी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
अंग्रेजी भाषा के हम तो,
खाने लगे निवाले हैं
खान-पान-परिधान विदेशी,
फिर भी हिन्दी वाले हैं
अपनी गठरी कभी न खोली,
उनके थाल खँगाल रहे
अपनी माता को दुत्कारा,
उनकी माता पाल रहे
कुछ काले अंग्रेज,
देश के बने हुए रखवाले हैं
वसुन्धरा-वन-खनिज और,
गो-गंगा को भी लील रहे
कृत्रिम मँहगाई फैलाकर,
जनता का तन छील रहे
खादी की केंचुलिया पहने,
डसते विषधर काले हैं
इनकी कारा में भारत माँ,
रोती और बिलखती है
डरी और सहमी हिन्दी,
कोने में पड़ी सिसकती है
हिन्दी को अपनी बिन्दी के,
पड़े हुए अब लाले हैं
गाँधी तेरे बन्दर अब भी,
अन्धे-गूँगे-बहरे हैं
दूध-दही की रखवाली पर,
बिल्लों के अब पहरे हैं
मत पाकर धनवान बने,
अब सियासती मतवाले हैं |
बुधवार, 29 अगस्त 2018
"सृजन कुंज की भूमिका" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
काव्य का
गुलदस्ता है सृजन कुंज
(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
पेशे से अंग्रेजी की एक शिक्षिका
जो कामकाजी महिला के साथ-साथ एक कुशल गृहणी, एक सम्वेदनशील पुत्री, मन्दालसा
जैसी माता, धर्मपरायण पत्नी और प्रेरक मित्र भी है,
उस प्रतिभाशालिनी कवयित्री का नाम है राधा तिवारी उर्फ राधेगोपाल।
जिनकी साहित्य निष्ठा देखकर मुझे प्रकृति के सुकुमार चितेरे श्री सुमित्रनन्दन
पन्त जी की यह पंक्तियाँ याद आ जाती हैं-
‘‘वियोगी होगा पहला कवि,
हृदय से उपजा होगा गान।
निकल कर नयनों से चुपचाप,
बही होगी कविता अनजान।।’’
आमतौर पर देखने में आया है
कि जो महिलाएँ नौकरी पेशा हैं, उनमें
से ज्यादातर चौके-चूल्हे और अपने कार्यालय तक ही सीमित हो जाती हैं। परन्तु राधा
तिवारी उर्फ राधेगोपाल ने इस मिथक को झुठलाते हुए अनवरत साहित्यसृजन करना अपनी
आदत बना ली है। सोते-जागते, रसोई-कार्यालय, विद्यालय में अपने पास एक डायरी और पेन रखना इनकी आदत बन गयी है और अपनी
धुन में सवार होकर विभिन्न भावों को अपनी काव्यकला से अभिसिंचित करती रहती हैं।
मुझे इनके काव्य संकलन ‘सृजन कुंज’ की पाण्डुलिपि देखने का
सौभाग्य प्राप्त हुआ। पुस्तक के नाम और आवरण ने मुझे प्रभावित किया और मैं इसको
पढ़ने के लिए स्वयं को रोक न सका। जबकि इससे पूर्व में प्राप्त हुई कई मित्रों की
कृतियाँ मेरे पास दो-शब्द लिखने के लिए कतार में हैं।
राधा तिवारी उर्फ राधेगोपाल
ने अपने काव्य संग्रह ‘सृजन कुंज’
में यह सिद्ध कर दिया है कि वह न केवल एक कवयित्री है बल्कि
शब्दों की कुशल चितेरी भी हैं। काव्य संग्रह का प्रारम्भ उन्होंने माँ शारदा की
वन्दना से किया है। जिसके शब्द वास्तव में बहुत हृदय ग्राही हैं-
‘‘ज्ञान के इन चक्षुओं में
छा रहा अँधियार भारी।
वन्दना स्वीकार कर लो
शारदे माता हमारी।।
माँ हमारी लेखनी को
शब्द का उपहार दे दो।
कर सकूँ आराधना मैं,
माँ मुझे अधिकार दे दो।।
चरण रज को चाहती है,
राधिका दासी तुम्हारी।’’
कवयित्री ने
अपने काव्यसंग्रह की मंजुलमाला में जिन रचनाओं के मोतियों को पिरोया है उनमें
माँ, पापा, मिट्ठू, चन्दामामा, कान्हा, मेरी
गुड़िया, बादल, अपना देश, हेलमेट, सहारा, बचपन, चिड़िया,
जोकर, रेल का इंजन आदि बालसुलभ संवेदनाएँ तो
हैं ही साथ ही दूसरी ओर रोजमर्रा की गतिविधियों पिछौड़ा, निन्दिया,
आसमां- कवि और कविता, धर्म, परिन्दे, सम्मान, जीवन,
धरा का रंग, प्रतिभा, कोरा
कागज, सुख-दुख, सोच, भूकम्प, कोहरा और सूरज आदि प्राकृतिक उपादानों और
कुछ महत्वपूर्ण ग़ज़लों को भी अपने काव्य संग्रह में स्थान दिया है। इसके अतिरिक्त
प्रेम के विभिन्न रूपों को भी उनकी रचनाओं में विस्तार मिला है-
‘‘मैं दिल के आईने में,
तुम को निहारती हूँ ।
ख्वाबों में जगते-सोते,
तुमको पुकारती हूँ ।
सपनों में मेरे आकर,
कुछ राज़ तो बताओ।
मेरे दिल को छू जो जाये,
वह साज तो बजाओ।’’
‘सृजन कुंज’
काव्यसंग्रह में कवयित्री ने माता के प्रति व्यथा को चिमटे के
माध्यम से अपने शब्द देते हुए लिखा है-
‘‘माँ जब तू रोटी सेंकेगी
तब मैं चिमटा बन जाऊँगा
कोमल कोमल हाथ तेरे माँ
जलने से स्वयं बचाऊँगा’’
जहाँ तक मुझे
ज्ञात है कवयित्री ने बहुत सारी छन्दबद्ध रचनाओं के साथ-साथ भावों को प्रमुखता
देते हुए सोद्देश्य लेखन के भाव को अपनी रचनाओं में हमेशा जिन्दा रखा है-
‘‘मानव जीवन है उपहार।
नहीं मिलेगा बारम्बार।।
डाली से जो टूट गया,
वह फूल नहीं खिलता है।
एक बार जो रूठ गया,
वो मीत नहीं मिलता है।।’’
समाज की मनोस्थति पर भी करीने के साथ कवयित्री ने अपनी सशक्त लेखनी को
चलाया है-
‘‘तुम हो मेरे सच्चे साथी
आओ बैठो दुख साथ मेरे
सुख मेहमां है पल दो पल का
क्या बैठेगा पास मेरे’’
दैविक आपदा
भूकम्प को लेकर कवयित्री ने लिखा है-
‘‘भूकंप ने आकर के धरती हिलाई।
बच्चों को लेकर माँ बाहर निकल आई।।
फेसबुक-व्हाट्सप चौकन्ने हो गये ।
लोग विध्वंस के डर में खो गये।।
तार हिला पंखा हिला टूटा विश्वास।
हिला खूँटी पर टँगा शान्त लिबास।।’’
छन्दबद्ध कृति के काव्यसौष्ठव
का अपना अनूठा ही स्थान होता है जिसका निर्वहन कवयित्री ने कुशलता के साथ किया
है-
‘‘प्रणय की तस्बीर हो खिलता गुलाब हो
जो सबको बाँटे रौशनी वो आफताब हो
आता है दबे पाँव ही जो ख्वाब में सदा
शीतल सी चाँदनी तुम्हीं तो माहताब हो’’
बाल रचनाओं को
कवयित्री ने बच्चों की भावनाओं के सागर में सराबोर होकर लिखा है। देखिए उनकी कुछ
बाल रचनाओं को-
मिट्ठू की बोली प्यारी
‘‘मैंने इक प्यारा सा तोता,
देखा आज बगीचे में।
मिट्ठू-मिट्ठू बोल रहा था,
तोता खूब दलीचे में।।’’
चन्दा मामा
‘‘चंदा मामा कितना प्यारा।
यह है सारे जग से न्यारा।।
मम्मी का यह भाई कहाता।
इसीलिए मामा कहलाता।।’’
‘सृजन कुंज’
काव्यसंकलन को पढ़कर मैंने अनुभव किया है कि कवयित्री राधा तिवारी
ने बाल सुलभ रचनाओं के साथ भाषिक सौन्दर्य के अतिरिक्त कविता और शृंगार की सभी
विशेषताओं का संग-साथ लेकर जो निर्वहन किया है वह अत्यन्त सराहनीय है।
मुझे पूरा
विश्वास है कि पाठक ‘सृजन कुंज’ काव्य
संकलन को पढ़कर अवश्य लाभान्वित होंगे और यह कृति समीक्षकों की दृष्टि से भी
उपादेय सिद्ध होगी।
हार्दिक
शुभकामनाओं के साथ!
दिनांकः 18-03-2018
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
कवि एवं
साहित्यकार
टनकपुर-रोड, खटीमा
जिला-ऊधमसिंहनगर
(उत्तराखण्ड) 262308
E-Mail -
roopchandrashastri@gmail-com
Website- http://uchcharan.blogspot.com-
Mobile No- 7906360576
|
मंगलवार, 28 अगस्त 2018
दोहे "समय हो गया तंग" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जब हर घर में जन्मते, दुनिया में इंसान।
मानवता का क्यों हुआ, फिर जग में अवसान।।
देख दशा संसार की, हुए हौसले पस्त।
भरी दुपहरी में हुआ, मानो सूरज अस्त।।
मान और अपमान का, नहीं किसी को ध्यान।
सरे आम इंसान का, बिकता है ईमान।।
भरे पड़े इस जगत में, बड़े-बड़े धनवान।
श्री के बिन कैसे कहें, उनको हम श्रीमान।।
जीने का जब सीखना, चाहा हमने ढंग।
बढ़ीं व्यस्तताएँ तभी, समय हो गया तंग।।
आपस में लड़ते नहीं, राम और रहमान।
फिर मानव क्यों उलझता, बन करके नादान।।
दुनिया में बिखरे हुए, भाँति-भाँति के रंग।
मत-मजहब के फेर में, मानवता है भंग।।
सबके पूजा-पाठ के, अलग-अलग हैं ढंग।
पन्थ भले ही भिन्न हों, भारत के सब अंग।।
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सोमवार, 27 अगस्त 2018
दोहे "आया भादौ मास" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बीत गया सावन सखे, आया भादौ मास।
श्री कृष्ण जन्माष्टमी, है बिल्कुल अब पास।।
दोपायो से हो रहे, चौपाये भयभीत।
मिल पायेगा फिर कहाँ, दूध-दही नवनीत।।
बिना बोलते जानवर, करते लोग शहीद।
फिर ऐसे त्यौहार को, कहें शान से ईद।।
होंगे ऐसे पर्व क्या, सबके लिए मुफीद।
जिसमें बहता खून हो, कैसी है वो ईद।।
जब आयेंगे देश में, कृष्णचन्द्र गोपाल।
आशा है गोवंश का, तब सुधरेगा हाल।।
हाथ थाम कर अनुज का, जब चलते बलराम।
धरा और आकाश में, मानो हों घनश्याम।।
जल थल में क्रीड़ा करें, बालक जब नन्दलाल।
नृत्य करेंगी गोपियाँ, ग्वाले देंगे ताल।।
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शनिवार, 25 अगस्त 2018
गीत "बहना करती है मनुहार" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
हरियाला सावन ले आया, राखी का त्यौहार।
अमर रहा है, अमर रहेगा, भाई-बहन का प्यार।।
दूर देश से चलकर बहना, बाबुल के घर आई,
सूनी ना रह जाये भइया, तेरी आज कलाई,
ममता की पावन डोरी ने, बाँध लिया संसार।
अमर रहा है, अमर रहेगा, भाई-बहन का प्यार।।
गूँथ लाई राखी में बहना, मन के माणिक-मोती,
भइया को मिष्ठान्न खिलाकर, खुश कितनी है होती,
रोली, अक्षत और तिलक में, भरे हुए उद्गार।
अमर रहा है, अमर रहेगा, भाई-बहन का प्यार।।
बहनें नहीं माँगती भइया, राखी का प्रतिदान,
संकट में अपनी बहनों का, रखना इतना ध्यान,
कभी बहन के लिए नेह का, बन्द न करना द्वार।
अमर रहा है, अमर रहेगा, भाई-बहन का प्यार।।
एक कोख से जन्म लिया है, इक आँगन में खेले,
साथ-साथ बचपन में हमने, देखे कितने मेले,
जीवन भर भाई की, बहना करती है मनुहार।
अमर रहा है, अमर रहेगा, भाई-बहन का प्यार।।
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गीत "प्रीत का व्याकरण" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
घूमते शब्द कानन में उन्मुक्त से,
जान पाये नहीं प्रीत का व्याकरण।
बस दिशाहीन सी चल रही लेखिनी
कण्टकाकीर्ण पथ नापते हैं चरण।।
ताल बनती नहीं, राग कैसे सजे,
बेसुरे हो गये साज-संगीत हैं।
ढाई-आखर बिना है अधूरी ग़ज़ल,
प्यार के बिन अधूरे प्रणयगीत हैं
नेह के स्रोत सूखे हुए हैं सभी,
खो गये हैं सभी आजकल आचरण।
कण्टकाकीर्ण पथ नापते हैं चरण।।
सूदखोरों की आबाद हैं बस्तियाँ,
आज गिरवीं पड़ा है तिजोरी में दिल।
बिक रहा बोतलों में जहाँ पेयजल,
आचमन के लिए है कहाँ अब सलिल।
खोखले छन्द बोलेंगे कैसे व्यथा,
स्वार्थ के वास्ते आज पोषण-भरण।
कण्टकाकीर्ण पथ नापते हैं चरण।।
चारणों के नगर में, सुख़नवर कहाँ,
जिन्दग़ी चल रही भेड़ की चाल से।
कौन तूती के सुर को सुनेगा यहाँ,
मढ़ रहे ढपलियाँ, बाल की खाल से।
लाज कैसे बचे द्रोपदी की यहाँ
कंस ओढ़े हुए हैं कृष्ण का आवरण
कण्टकाकीर्ण पथ नापते हैं चरण।।
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शुक्रवार, 24 अगस्त 2018
गीत "राखी का पावन त्यौहार" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आया राखी का त्यौहार!!
हरियाला सावन ले आया, ये पावन उपहार।
अमर रहा है, अमर रहेगा, राखी का त्यौहार।।
आया राखी का त्यौहार!!
जितनी ममता होती है, माता की मृदु लोरी में,
उससे भी ज्यादा ममता है, राखी की डोरी में,
भरा हुआ कच्चे धागों में, भाई-बहन का प्यार।
अमर रहा है, अमर रहेगा, राखी का त्यौहार।।
आया राखी का त्यौहार!!
भाई को जा करके बाँधें, प्यारी-प्यारी राखी,
हर बहना की यह ही इच्छा राखी के दिन जागी,
उमड़ा है भगिनी के मन में श्रद्धा-प्रेम अपार!
अमर रहा है, अमर रहेगा, राखी का त्यौहार।।
आया राखी का त्यौहार!!
खेल-कूदकर जिस अँगने में, बीता प्यारा बचपन,
कैसे याद भुलाएँ उसकी, जो मोहक था जीवन,
कभी रूठते और कभी करते थे, आपस में मनुहार।
अमर रहा है, अमर रहेगा, राखी का त्यौहार।।
आया राखी का त्यौहार!!
गुज़रे पल की याद दिलाने, आई बहना तेरी,
रक्षा करना मेरे भइया, विपदाओं में मेरी,
दीर्घ आयु हो हर भाई की, ऐसा वर दे दो दातार।
अमर रहा है, अमर रहेगा, राखी का त्यौहार।।
आया राखी का त्यौहार!!आज किसी भी भाई की, ना सूनी रहे कलाई, पहुँचा देना मेरी राखी, अरे डाकिए भाई, बहुत दुआएँ दूँगी तुझको, तेरा मानूँगी उपकार! अमर रहा है अमर रहेगा, राखी का त्यौहार!! आया राखी का त्यौहार!! |
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