जो खुश होकर अंग लगाती।
खेतों की जो प्यास बुझाती,
वो पावन गंगा कहलाती।।
आड़े-तिरछे और नुकीले,
पाषाणों को तराशती है।
पर्वत से मैदानों तक जो,
अपना पथ खुद तलाशती है।
गोमुख से सागर तक जाती।
वो पावन गंगा कहलाती।।
फसलों को नवजीवन देती,
पुरखों का भी तर्पण करती।
मैल हटाती-स्वच्छ बनाती,
मन का निर्मल दर्पण करती।
जो कल-कल का नाद सुनाती।
वो पावन गंगा कहलाती।।
चलना ही जीवन होता है
जो रुकता है वो सड़ जाता,
जो पत्ता नहीं लहराता है,
वो पीला पड़कर झड़ जाता।
चरैवेति सन्देश सिखाती।
वो पावन गंगा कहलाती।।
मैला और विषैला पानी,
गंगा में अब नहीं बहाओ।
समझो अपनी जिम्मेदारी,
गंगा का अस्तित्व बचाओ।
जो अपने पुरखों की थाती।
वो पावन गंगा कहलाती।।
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शनिवार, 4 अगस्त 2018
गीत "वो पावन गंगा कहलाती" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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मैला और विषैला पानी,
जवाब देंहटाएंगंगा में अब नहीं बहाओ।
समझो अपनी जिम्मेदारी,
गंगा का अस्तित्व बचाओ।
वाह
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (06-08-2018) को "वन्दना स्वीकार कर लो शारदे माता हमारी" (चर्चा अंक-3054) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
बहुत सुन्दर भावपूर्ण...
जवाब देंहटाएंसच है की इस पावन गंगा को साफ़ रखना हमारी जिम्मेदारी है ... जिसे अनदेखा कर रहे हैं हम ...