संस्मरण
गुरू सहाय भटनागर बदनाम नहीं रहे
सम्बन्धों में हों जहाँ, छोटी-बड़ी दरार।
धरती पर कैसे कहें, उसे सुखी परिवार।।
निम्न संस्मरण कल लिखा था...
जिस प्रकार दुनिया में आने का कोई मुहूर्त नहीं होता, उसी प्रकार दुनिया से जाने का भी कोई समय नहीं होता। मेरे अभिन्न मित्र श्री गुरू सहाय भटनागर के बारे में कल ही संस्मरण लिखा था कि परिवार के सगे वालों की अवहेलना से किस प्रकार उनकी श्रीमती जी का देहावसान हो गया था। भटनागर जी अशक्त थे स्पन्दनहीन थे संज्ञाशून्य थे लेकिन श्वाँस चल रही थी इसलिए चाह कर भी कुछ नहीं कर पाये थे। 18 जुलाई, 2018 को अकस्मात उनकी पत्नी श्रीमती आशा भटनागर का हृदयगति रुक जाने से देहान्त हो गया था। उसके बाद तो यह आशा ही नहीं रही थी कि उनकी देखभाल भी उसी तरह होगी जैसी की उनकी पत्नी के जीवित रहते हुए होती थी।
अभी तीन दिन पहले की ही तो बात है 29 जुलाई को उनकी पत्नी की तेहरवीं की रस्म अदायगी थी। जिसका सारा खर्चा उनकी पुत्री और दामाद ने उठाया था।
आज सुबह श्री गुरू सहाय भटनागर जी की छोटी पुत्रवधु शालू का फोन आया कि अंकल जी पापा जी की रात्रि 10 बजे डेथ हो गयी है। यह सुनकर आज मुझे न तो आश्चर्य ही हुआ और न ही आघात लगा। क्योंकि मेरे मित्र श्री गुरू सहाय भटनागर जी तो लगभग डेड़ महीने से नारकीय जीवन जी रहे थे। उन्हें कुछ भी होश नहीं था। नाक और मुँह में श्वाँस और तरल भोजन के लिए रबड़ की नलियाँ पड़ी हुई थीं। वो न तो किसी को पहचानते थे और न ही मुख से कुछ बात ही करते थे। मैं तो 18 जुलाई से ही भगवान से यह प्रार्थना कर रहा था कि हे प्रभु! आप मेरे मित्र को इस नारकीय जीवन से मुक्त कर दो और अपनी शरण में ले लो।
श्री गुरू सहाय भटनागर जी "बदनाम" के उपनाम से अपनी शायरी करते थे। अस्सी साल की उमर में भी वे एक दिन्दादिल इंसान थे, जो जीवन भर ईमानदारी की प्रतिमूर्ति बनकर रहे। हम लोग उन्हें प्यार से युवा शायर कहते थे।
आज सच्चे मन से मैं उन्हे अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि समर्पित करते हुए उनके कुछ अशआर उनको ही समर्पित कर रहा हूँ-
"इक सुहानी शाम मेरी जिन्दगी
प्यार का उपनाम मेरी जिन्दगी
हर किसी से हँस के है मिलती गले
इसलिए "बदनाम मेरी जिन्दगी
--
गम-ए-पिन्हाँ
डूब कर तेरे ख्यालों में आके बैठा हूँ
कौन सा ग़म है जिसे मैं छुपा के बैठा हूँ
बदलते दौर में कोई बफ़ा नहीं करता
चाह की फिर भी शम्मा जला के बैठा हूँ
कुसूर तेरानहीं किस्मत का ही होगा अपनी
दाग दामन में खुद ही लगाके बैठा हूँ
मैं तेरे ख्याल से खाली कभी नहीं रहता
तुम्हारी याद को दिल में बसा के बैठा हूँ
करके ‘बदनाम’ हमसे दूर चले जाओगे
गमे-पिन्हाँ में मैं हस्ती मिटा के बैठा हूँ
सम्बन्धों में हों जहाँ, छोटी-बड़ी दरार।
धरती पर कैसे कहें, उसे सुखी परिवार।।
आज बहुत ही भारी मन से यह संस्मरण साझा कर रहा हूँ। मुझसे 11 वर्ष बड़े श्री गुरू सहाय भटनागर तैंतालिस वर्षों से मेरे अभिन्न मित्र हैं। सन 1975 में जब मैं नैनीताल जिले की तराई में स्थित गाँव बनबसा में आया था तब वह भी बनबसा हेडवर्क्स में स्टोरकीपर के पद पर स्थानान्तरित होकर आये थे। उनके दो विवाहित पुत्र और एक विवाहित पुत्री है। पुत्री तो बरेली में सम्पन्न परिवार में है मगर दोनों पुत्र बिल्कुल निकम्मे हैं। श्री गुरू सहाय भटनागर जी “बदनाम” के उपनाम से अपनी शायरी करते थे। आपका ग़ज़ल संग्रह "शाम-ए-तन्हाई" भी 25 साल पहले प्रकाशित हो चुका है। भटनागर साहिब ने अपनी 50 बीघा गाँव की जमीन बेचकर दोनों पुत्रों के भरण-पोषण में लगा दी।
रिटायरमेंट के बाद आप खटीमा में आ गये, आवास विकास में एक मकान बना लिया उसमें रहने लगे। ग्यारह हजार की पेंशन पर ही आप अपना गुजारा करते थे। आपकी श्रीमती जी 20 साल से हृदय रोग से ग्रस्त हैं। दोनों पति-पत्नी में बहुत प्रेम था। लगभग 6 महीने पहले भटनागर जी को भूलने की बीमारी लग गयी और वह बढ़ती ही गयी। तीन माह पूर्व तो हालत यह हो गयी कि वह घर वालों के प्रति हिंसक व्यवहार करने लगे। उनकी श्रीमती ने उन्हे बरेली के अच्छे से अच्छे डॉक्टर को दिखाया परन्तु बीमारी बढ़ती ही गयी। बरेली के जिस अस्पताल में वे भर्ती थे वहाँ भी जवाब दे दिया गया। अन्ततः उन्हें घर ले आये।
भटनागर जी के नाक और गले में श्वाँस और तरल भोजन के लिए रबड़ की नलियाँ पड़ीं थी। आपकी श्रीमती जी बीमार होते हुए भी अपने पति की सेवा में कोई कोताही नहीं करती थी। छोटा पुत्र और उसका परिवार आपके साथ ही रहता था। परन्तु पिता की बीमारी के बारे में सुनकर बड़े पुत्र ने भी खटीमा में ही आकर सपरिवार डेरा डाल दिया और पिता के मरने का इन्तजार करने लगा कि कब पिता जी इस दुनिया से पलायन करें और कब वह मकान पर कब्जा करे।
एक दिन बड़ी पुत्रवधु ने भटनागर साबव की खाने और श्वाँस लेने की नलियाँ निकाल दी। इस पर भटनागर साहिब की पत्नी को गहरा आघात लगा और हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हो गयी।
ईश्वर की लीला देखिए पहले भटनागर साहब को जाना था और उनकी पत्नी 18 जुलाई, 2018 को इस दुनिया को छोड़ कर चली गयीं। मेरे मित्र श्री गुरू सहाय भटनागर “बदनाम” जी इस दुनिया में हैं तो सही लेकिन उनका होना और न होना एक बराबर है। वो न तो किसी को पहचानते हैं और न ही कुछ बोलते हैं। पीठ और कुहनियों में घाव हो गये हैं। न जाने कहाँ उनकी श्वाँस अटकी है।
मेरे जैसे उनके इष्ट-मित्रों के मन से यही आवाज निकलती है कि ईश्वर किसी को भी श्री गुरू सहाय भटनागर जी के पुत्रों जैसी सन्तान न दे।
मैं उनके प्रति अपनी श्रद्धा को प्रकट करने हेतु
श्री गुरू सहाय भटनागर ”बदनाम” जी की
एक ग़ज़ल इस अवसर पर प्रस्तुत कर रहा हूँ।
कब मुलाकात होगी
इशारों-इशारों में जब बात होगी
नज़र से नज़र की मुलाकात होगी
वो ज़ुल्फ़ों को अपनी बिखेरेंगे जब-जब
घटाओं से घिर-घिर के बरसात होगी
लबों पर तबस्सुम की हल्की-सी जुम्बिश
हसीं शोख़-सी उनसे इक बात होगी
बढ़ेगी फिर उनसे मोहब्बत यहाँ तक
मिलन की फिर उनसे शुरूआत होगी
वो शरमा के जब अपना मुँह फेर लेंगे
मुहब्बत के फूलों की बरसात होगी
वो चल तो दिए दिल में तूफ़ां उठाकर
कि ‘बदनाम’ से कब मुलाकात होगी
गुरू सहाय भटनागर 'बदनाम'
|
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बुधवार, 1 अगस्त 2018
संस्मरण "गमे-पिन्हाँ में मैं हस्ती मिटा के बैठा हूँ" गुरू सहाय भटनागर बदनाम
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सरल हृदय की पुकार प्रभु ने सुन ली।
जवाब देंहटाएंप्रभु उनकी को आत्मा शांति प्रदान करें।
🙏🙏
ओह, अत्यंत दुखद !
जवाब देंहटाएंआदरनीय सर -- कल भे पढ़ा था और आज भी | आँखें नम हो गयी सब पढ़कर | साहित्य साधक के साथ अमानवीयता भरा सलूक बहुत दुखद है | सच है उस नारकीय जीवन से मौत भली पर जो हुआ जिस तरह हुआ बहुत मर्मान्तक लगा पढ़कर |संतान भी मुक्त हुई | माता पिता गये अब नहीं आयेंगे उन्हें सताने , पर एक दिन उनकी कृतघ्नता उन्हें बहुत कचोटेगी | दिवंगत आत्मा के लिए शांति की प्रार्थना और नमन !!!!!
जवाब देंहटाएंग़ज़ल के इस सशक्त हस्ताक्षर को वीरुभाई के प्रणाम शायर कहीं नहीं जाते अशआर कहीं नहीं जाते शरीर जाए तो जाए इसे तो जाना ही है :
जवाब देंहटाएंगम-ए-पिन्हाँ
डूब कर तेरे ख्यालों में आके बैठा हूँ
कौन सा ग़म है जिसे मैं छुपा के बैठा हूँ
बदलते दौर में कोई बफ़ा नहीं करता
चाह की फिर भी शम्मा जला के बैठा हूँ
कुसूर तेरानहीं किस्मत का ही होगा अपनी
दाग दामन में खुद ही लगाके बैठा हूँ
मैं तेरे ख्याल से खाली कभी नहीं रहता
तुम्हारी याद को दिल में बसा के बैठा हूँ
करके ‘बदनाम’ हमसे दूर चले जाओगे
गमे-पिन्हाँ में मैं हस्ती मिटा के बैठा हूँ