जब हर घर में जन्मते, दुनिया में इंसान।
मानवता का क्यों हुआ, फिर जग में अवसान।।
देख दशा संसार की, हुए हौसले पस्त।
भरी दुपहरी में हुआ, मानो सूरज अस्त।।
मान और अपमान का, नहीं किसी को ध्यान।
सरे आम इंसान का, बिकता है ईमान।।
भरे पड़े इस जगत में, बड़े-बड़े धनवान।
श्री के बिन कैसे कहें, उनको हम श्रीमान।।
जीने का जब सीखना, चाहा हमने ढंग।
बढ़ीं व्यस्तताएँ तभी, समय हो गया तंग।।
आपस में लड़ते नहीं, राम और रहमान।
फिर मानव क्यों उलझता, बन करके नादान।।
दुनिया में बिखरे हुए, भाँति-भाँति के रंग।
मत-मजहब के फेर में, मानवता है भंग।।
सबके पूजा-पाठ के, अलग-अलग हैं ढंग।
पन्थ भले ही भिन्न हों, भारत के सब अंग।।
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मंगलवार, 28 अगस्त 2018
दोहे "समय हो गया तंग" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (29-08-2018) को "कुछ दिन मुझको जी लेने दे" (चर्चा अंक-3078) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
बहुत खूब.
जवाब देंहटाएंमज़हबी एकता और उसमें पिरोये हुए एक ही सन्देश का वजन बढ़ाती है यह दोहा वाली। सुंदर सटीक सर्वकालिक :
जवाब देंहटाएंsatshriakaljio.blogspot.com