सबकुछ वही पुराना सा है!
कैसे नूतन सृजन करूँ मैं?
कभी चाँदनी-कभी अँधेरा,
लगा रहे सब अपना फेरा,
जग झंझावातों का डेरा,
असुरों ने मन्दिर को घेरा,
देवालय में भीतर जाकर,
कैसे अपना भजन करूँ मैं?
कैसे नूतन सृजन करूँ मैं?
वो ही राग-वही है गाना,
लाऊँ कहाँ से नया तराना,
पथ तो है जाना-पहचाना,
लेकिन है खुदगर्ज़ ज़माना,
घी-सामग्री-समिधा के बिन,
कैसे नियमित यजन करूँ मैं?
कैसे नूतन सृजन करूँ मैं?
बना छलावा पूजन-वन्दन
मात्र दिखावा है अभिनन्दन
चारों ओर मचा है क्रन्दन,
बिखर रहे सामाजिक बन्धन,
परिजन ही करते अपमानित,
कैसे उनको सुजन करूँ मैं?
गुलशन में पादप लड़ते हैं,
कमल सरोवर में सड़ते हैं,
कदम नहीं आगे बढ़ते हैं,
पावों में कण्टक गड़ते है,
पतझड़ की मारी बगिया में,
कैसे मन को सुमन करूँ मैं?
|
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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मंगलवार, 31 दिसंबर 2013
"कैसे मन को सुमन करूँ मैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
"ये टोपी है बलिदान की" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
ये टोपी हिन्दुस्तान की, ये टोपी है बलिदान की।
ये तेरी भी, ये मेरी भी, ये मजदूर किसान की।।
भेद नहीं है जाति-धर्म का, देती है आदेश कर्म का,
अपनी टोपी धारण करना, काम नहीं है लाज-शर्म का,
ये प्रतीक का चिह्न हमारे, स्वाभिमान-सम्मान की।
ये तेरी भी, ये मेरी भी, ये मजदूर किसान की।।
जिसने इस सीधी-सादी, अपनी टोपी को अपनाया,
उसने ही अपने समाज में, ऊँचे पद को है पाया,
टोपी से पहचान हमारे, भारत के परिधान की।
ये तेरी भी, ये मेरी भी, ये मजदूर किसान की।।
जैसे हिम के बिना अधूरी, लगती कंचनजंघा है,
वैसे ही सिर टोपी के बिन, लगता नंगा-नंगा है,
आन-बान है यही हमारे, प्यारे देश महान की।
ये तेरी भी, ये मेरी भी, ये मजदूर किसान की।।
सबसे न्यारी अपनी टोपी, संविधान की पोषक है,
मानवता के लिए, हमारी निष्ठा की उद्घोषक है,
याद दिलाती हमको अपने, धर्म और ईमान की।
ये तेरी भी, ये मेरी भी, ये मजदूर किसान की।। |
सोमवार, 30 दिसंबर 2013
"टोपी हिन्दुस्तान की" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
ये टोपी है बलिदान की, ये टोपी
हिन्दुस्तान की।
ये तेरी भी, ये
मेरी भी, ये मजदूर किसान की।।
भेद नहीं है जाति-धर्म का, देती
है आदेश कर्म का,
अपनी टोपी धारण करना, काम
नहीं है लाज-शर्म का,
ये प्रतीक का चिह्न हमारे, स्वाभिमान-सम्मान
की।
ये तेरी भी, ये
मेरी भी, ये मजदूर किसान की।।
जिसने इस सीधी-सादी, अपनी टोपी को अपनाया,
उसने ही अपने समाज में, ऊँचे पद को है पाया,
टोपी से पहचान हमारे, भारत
के परिधान की।
ये तेरी भी, ये
मेरी भी, ये मजदूर किसान की।।
जैसे हिम के बिना अधूरी, लगती
कंचनजंघा है,
वैसे ही सिर टोपी के बिन, लगता
नंगा-नंगा है,
आन-बान है यही हमारे, प्यारे
देश महान की।
ये तेरी भी, ये
मेरी भी, ये मजदूर किसान की।।
सबसे न्यारी अपनी टोपी, संविधान की पोषक
है,
मानवता के लिए, हमारी निष्ठा की उद्घोषक है,
याद दिलाती हमको अपने, धर्म और ईमान की।
ये तेरी भी, ये मेरी भी,
ये मजदूर किसान की।। |
रविवार, 29 दिसंबर 2013
"गीत सुनाती माटी अपने, गौरव और गुमान की" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
गीत सुनाती माटी अपने, गौरव और गुमान की।
दशा सुधारो अब तो लोगों, अपने हिन्दुस्तान की।।
खेतों में उगता है सोना, इधर-उधर क्यों झाँक रहे?
भिक्षुक बनकर हाथ पसारे, अम्बर को क्यों ताँक रहे?
आज जरूरत धरती माँ को, बेटों के श्रमदान की।
दशा सुधारो अब तो लोगों, अपने हिन्दुस्तान की।।
हरियाली के चन्दन वन में, कंकरीट के जंगल क्यों?
मानवता के मैदानों में, दावनता के दंगल क्यों?
कहाँ खो गयी साड़ी-धोती, भारत के परिधान की।
दशा सुधारो अब तो लोगों, अपने हिन्दुस्तान की।।
टोपी-पगड़ी, चोटी-बिन्दी, हमने अब बिसराई क्यों?
अपने घर में अपनी हिन्दी, सहमी सी सकुचाई क्यों?
कहाँ गयी पहचान हमारे, पुरखों के अभिमान की।
दशा सुधारो अब तो लोगों, अपने हिन्दुस्तान की।।
कहाँ गया ईमान हमारा, कहाँ गया भाई-चारा?
कट्टरपन्थी में होता, क्यों मानवता का
बँटवारा?
मूरत लुप्त हो गयी अब तो, अपने विमल-वितान
की।।
दशा सुधारो अब तो लोगों, अपने हिन्दुस्तान की।।
|
शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013
"एक पुराना गीत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
गुरुवार, 26 दिसंबर 2013
"निष्ठुर उपवन देखे हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आपाधापी
की दुनिया में,
ऐसे
मीत-स्वजन देखे हैं।
बुरे
वक्त में करें किनारा,
ऐसे कई
सुमन देखे हैं।।
धीर-वीर-गम्भीर
मौन है,
कायर केवल
शोर मचाता।
ओछी
गगरी ही बतियाती,
भरा घड़ा
कुछ बोल न पाता।
बरस न
पाते गर्जन वाले,
हमने वो
सावन देखे हैं।
बुरे
वक्त में करें किनारा,
ऐसे कई
सुमन देखे हैं।।
जब तक
है लावण्य देह में,
दुनिया
तब तक प्रीत निभाती।
माया-मोह
धरे रह जाते,
जब दिल
की धड़कन थम जाती।
सम्बन्धों
को धता बताते,
ऐसे घर-आँगन
देखे हैं।
बुरे
वक्त में करें किनारा,
ऐसे कई
सुमन देखे हैं।।
ऐसे भी
साहित्यकार हैं,
जो खुदगर्ज़ी
को अपनाते।
बने मील
के पत्थर जैसे,
लोगों
को ही पथ दिखलाते।
जिनका
अन्तस्थल पाहन सा,
वो माणिक-कंचन
देखे हैं।
बने मील
के पत्थर जैसे,
औरों को
ही राह बताते।
जो संवेदनशील
नहीं है,
वो मानव
दानव कहलाता।
रंग
बदलता गिरगिट जैसा,
अपना असली
“रूप” छिपाता।
अपने
बिरुए निगल रहे जो,
वो निष्ठुर उपवन देखे हैं।
|
दुखद समाचार "श्रीमती सरिता भाटिया के जीवनसाथी नहीं रहे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बुधवार, 25 दिसंबर 2013
"जीवन दर्शन समझाया" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
25 दिसम्बर बड़ा दिन
हार्दिक शुभकामनाएँ
दुखियों की सेवा करने को,
यीशू धरती पर आया।
निर्धनता में पलकर जग को
जीवन दर्शन समझाया।।
जन-जन को सन्देश दिया,
सच्ची बातें स्वीकार करो!
छोड़ बुराई के पथ को,
अच्छाई अंगीकार करो!!
कुदरत के ज़र्रे-ज़र्रे में,
रहती है प्रभु की माया।
निर्धनता में पलकर जग को
जीवन दर्शन समझाया।।
मज़हब की कच्ची माटी में,
कुश्ती और अखाड़ा क्यों?
फल देने वाले पेड़ों पर,
आरी और कुल्हाड़ा क्यों?
क्षमा-सरलता और दया का,
पन्थ अनोखा बतलाया।
निर्धनता में पलकर जग को
जीवन दर्शन समझाया।।
हत्या-लूटपाट करना,
अपराध घिनौना होता है।
महिलाओं का कोमल तन-मन,
नहीं खिलौना होता है।
कभी जुल्म मत ढाना इनपर,
ये हम सबकी हैं जाया।
निर्धनता में पलकर जग को
जीवन दर्शन समझाया।।
|
मंगलवार, 24 दिसंबर 2013
"अब रचो सुखनवर गीत नया" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
अब रचो सुखनवर गीत नया।।
फिरकों में था इन्सान बँटा,
कुछ अकस्मात् अटपटा घटा।
तब राजनीति का भिक्षुक भी,
झूठी हमदर्दी लिए डटा।
लोकतन्त्र का दानव फिर,
मानवता का घर रीत गया।
अब रचो सुखनवर गीत नया।।
जो कुटिया थी मंगलकारी,
वीरान हुई उसकी क्यारी।
भाषण में राशन बाँट रहे,
शासन में बैठे अधिकारी।
वो कैसे धीर धरेंगे अब,
जिनका दुनिया से मीत गया।
अब रचो सुखनवर गीत नया।।
अब दिवस सुहाने आयेंगे,
नूतन से हम सुख पायेंगे।
उपवन सुमनों से महकेगा,
फिर भँवरे गुन-गुन गायेंगे।
आशायें दिलाशा देती हैं,
अब रुदनभरा संगीत गया।
अब रचो सुखनवर गीत नया।।
नया सूर्य अब चमकेगा,
सारा अँधियारा हर लेगा।
जब सुख के बादल बरसेंगे,
तब “रूप” देश का
दमकेगा।
धावकमन बाजी जीत गया।
अब रचो सुखनवर गीत नया।।
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