भटक रहा है मारा-मारा।
गधा हो गया है बे-चारा।।
जनसेवक ने लील लिया है,
बेचारों का भोजन सारा।
चरागाह अब नहीं बचे हैं,
पाये कहाँ से अब वो चारा।
हुई घिनौनी आज सियासत,
किस्मत में केवल है नारा।
कंकरीट के जंगल हैं अब,
हरी घास ने किया किनारा।
कूड़ा-करकट मैला खाता,
भूख हो गयी है आवारा।
भूसी में से तेल निकलता,
कठिन हो गया आज गुज़ारा।
"रूप" हमारा चाहे जो हो,
किन्तु गधे सा काम हमारा।
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शनिवार, 30 नवंबर 2013
"ग़ज़ल-गधा हो गया है बे-चारा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
शुक्रवार, 29 नवंबर 2013
"दोहे-अन्धा कानून" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
खौफ
नहीं कानून का, इन्सानों को आज।
हैवानों
की होड़ अब, करने लगा समाज।।
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लोकतन्त्र
में न्याय से, होती अक्सर भूल।
कौआ
मोती निगलता, हंस फाँकता धूल।।
--
धनबल-तनबल-राजबल,
जन-गण रहे पछाड़।
बच
जाते मक्कार भी, लेकर शक की आड़।।
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मोटी
रकम डकार कर, करते बहस वकील।
गद्दारों
के पक्ष में, देते तर्क दलील।।
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सरे
आम होने लगा, नारी का अपमान।
पोथी-पत्री
में निहित, अबला का सम्मान।।
--
नर-नारी
की खान को, अबला रहे पुकार।
बेटों
को तो लाड़ हैं, बेटी को दुत्कार।।
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माँ-बहनों
के रूप की, लगती बोली आज।
अन्धा
ही कानून है, अन्धा ही है राज।।
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गुरुवार, 28 नवंबर 2013
"ग़ज़ल-आँखें कुदरत का उपहार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
गुस्सा-प्यार और मनुहार
आँखें कर देतीं इज़हार
नफरत-चाहत की भाषा का
आँखों में संचित भण्डार
बिन काग़ज़ के, बिना क़लम के
लिख देतीं सारे उद्गार
नहीं छिपाये छिपता सुख-दुख
करलो चाहे यत्न हजार
पावस लगती रात अमावस
हो जातीं जब आँखें चार
नहीं जोत जिनकी आँखों में
उनका है सूना संसार
“रूप” इन्हीं से जीवन का है
आँखें कुदरत का उपहार
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बुधवार, 27 नवंबर 2013
"ग़ज़ल-जंग ज़िन्दगी की जारी है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
हिम्मत अभी नहीं हारी है
जंग ज़िन्दगी की जारी है
मोह पाश में बँधा हुआ हूँ
ये ही तो दुनियादारी है
ज्वाला शान्त हो गई तो क्या
दबी राख में चिंगारी है
किस्मत के सब भोग भोगना
इस जीवन की लाचारी है
चार दिनों के सुख-बसन्त में
मची हुई मारा-मारी है
हाल भले बेहाल हुआ हो
जान सभी को ही प्यारी है
उसकी लीला-वो ही जाने
ना जाने किसकी बारी है
ढल जायेगा “रूप” एक दिन
कठिन बुढ़ापा बीमारी है
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मंगलवार, 26 नवंबर 2013
"नही ज़लज़लों से डरता है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
जो परिन्दे के पर कतरता है।
वो इबादत का ढोंग करता है।।
जो नहीं हो सका कभी अपना,
दम वही दोस्ती का भरता है।
दीन-ईमान जिसने छोड़ दिया,
कब्र में पाँव वो ही धरता है।
पार उसका लगा सफीना है,
जो नही ज़लज़लों से डरता है।
इन्तहा जिसने जुल्म की की है,
वो तो कुत्ते की मौत मरता है।
“रूप” सूरज का कम नहीं होता,
वो जईफी में भी निखरता है।
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सोमवार, 25 नवंबर 2013
"पोस्ट को लगाने के बारे में उपयोगी सुझाव" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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