मित्रों!
आज मेरी
एक पुरानी रचना देखिए।
जब कोई श्यामल सी बदली,
सपनों में छाया करती है!
तब होता है जन्म गीत का,
रचना बन जाया करती है!!
निर्धारित कुछ समय नही है,
कोई अर्चना विनय नही है,
जब-जब निद्रा में होता हूँ,
तब-तब यह आया करती है!
रचना बन जाया करती है!!
शोला बनकर आग उगलते,
कहाँ-कहाँ से शब्द
निकलते,
अक्षर-अक्षर मिल करके ही,
माला बन जाया करती है!
रचना बन जाया करती है!!
दीन-दुखी की व्यथा देखकर,
धनवानों की कथा देखकर,
दर्पण दिखलाने को मेरी,
कलम मचल जाया करती है!
रचना बन जाया करती है!!
भँवरे ने जब राग सुनाया,
कोयल ने जब गाना गाया,
मधुर स्वरों को सुनकर मेरी,
नींद टूट जाया करती है!
रचना बन जाया करती है!!
वैरी ने हुँकार भरी जब,
धनवा ने टंकार करी तब,
नोक लेखनी की तब मेरी,
भाला बन जाया करती है!
रचना बन जाया करती है!!
|
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मंगलवार, 25 मार्च 2014
"नोक लेखनी की भाला बन जाया करती है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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अरे वाह, इतने सरल शब्द और इतनी गंभीर रचना।
जवाब देंहटाएंवाह!क्या ओज है रचना में !
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंगहरे भाव समेटे लाजवाब रचना। बधाई।
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत ही सुन्दर रचना।
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