लक्ष्य तो मिला नहीं, राह नापता रहा।
काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।।
पथ में जो मिला मुझे, मैं उसी का हो गया।
स्वप्न के वितान में, मन नयन में खो गया।
शूल की धसान में, फूल छाँटता रहा।
काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।।
चेतना के गाँव में, चेतना तो सो गयी।
अन्धकार छा गया, सुबह से शाम हो गयी,
और मैं मकान में, गूल पाटता रहा।
काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।।
रत्न खोजने चला हूँ, पर्वतों के देश में।
अभी तो कुछ मिला नहीं, पत्थरों के वेश में।
किन्तु ख़ानदान में, उसूल बाँटता रहा।
काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।।
चन्द्रिका ‘मयंक’ की, तन-बदन जला रही।
कुटिलग्रहों की चाल अब, कुचक्र को चला रही।
और मैं मचान की, झूल काटता रहा।
काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।।
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बुधवार, 12 अक्टूबर 2016
गीत "राह नापता रहा, धूल चाटता रहा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सुन्दर रचना आदरनीय शास्त्री जी !
जवाब देंहटाएंआपके स्वागत में -"पत्थर "
पत्थर कलेजे पर रख देखता रहा ,
जिसपर टिकी नीव वही लुटता रहा |
पत्थर पूजने दर दर भटकता रहा,
पिण्ड अपने आपमें नहीं दिखता रहा|
रत्नों की खान भी सभी पत्थर ही रहा,
बर्बाद फसलों पर वह ओला बन गिरा|
वह पत्थर वाट वाट महल बनाता रहा,
पसीना गरीब का ही सदा बहता रहा||
सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर ।
जवाब देंहटाएंकारवां गुजर गया की याद आ गयी, इसे पढ़कर। वाह।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13-10-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2494{ चुप्पियाँ ही बेहतर } में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंThanks For Sharing With Us! Hindi Moral Stories
जवाब देंहटाएंGreat struggle for this. Precious collection of book is available here. Rahul from Online Calculator.
जवाब देंहटाएं