ये
पात-पात निकले, वो
डाल-डाल निकले
मुर्दार बस्तियों में, लेकर मशाल निकले
परदेशियों के आगे, घुटने वो टेकते हैं, ईमान के शिकारी, गठरी खँगाल निकले निर्धन का जो अभी तक, दामन भी सिल न पाये
शतरंज के खिलाड़ी, चलने को चाल निकले
लोगों की गर्दनों पर, खंजर चला रहे हैं सपने हसीं दिखाकर, करने कमाल निकले
सीमा पे अपने सैनिक, दिन-रात मर रहे हैं
कायर बने हुए से, करने मलाल निकले
वोटों के ये भिखारी, दर-दर भटक रहे हैं
अपनों के वास्ते ही, बुनने को जाल निकले। है नाम भी सुरीला और "रूप" सन्त का सा मीठी छुरी से सबको, करने हलाल निकले। |
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शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016
ग़ज़ल "करने मलाल निकले" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक)
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बहुत बढ़िया ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
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