मित्रों।
मेरी एक रचना
त्रयमासिक पत्रिका
“शैल-सूत्र”
के अंक अक्टूबर-दिसम्बर में
पृष्ठ-25 पर प्रकाशित हुई थी।
आपके अवलोकनार्थ इस रचना को
ब्लॉग पर भी प्रकाशित कर रहा हूँ।
सुख का सूरज नहीं गगन में
कुहरा पसरा है आँगन में
पाला पड़ता शीत बरसता
सर्दी में सब बदन ठिठुरता
तन ढकने को वस्त्र न पूरे
निर्धनता में जीवन मरता
पौधे मुरझाये गुशन में
कुहरा पसरा है आँगन में
आपाधापी और वितण्डा
गैस बिना चूल्हा है ठण्डा
लोकतन्त्र का आजादी तो
बन्धक है अब राजभवन में
कुहरा पसरा है आँगन में
विदुरनीति का हुआ सफाया
दुर्नीती ने पाँव जमाया
आदर्शों को धता बताकर
देश लूटकर सबने खाया
खर-पतवार उगी उपवन में
कुहरा पसरा है आँगन में
|
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गुरुवार, 8 दिसंबर 2016
गीत "कुहरा पसरा है आँगन में" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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