चन्दा जैसा वदन है, बिम्बा जैसे गाल।
सँगमरमरी देह है, हिरणी जैसी चाल।।
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दौड़े आते लोग हैं, बँटती जब सौगात।
डोल रहा ईमान है, जैसे पीपल-पात।।
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होता पीपल-पान सा, प्यारा सा आकार।
बड़भागी वो लोग हैं, जिनको मिलता प्यार।।
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सागर सा ही समझिए, मन का कूप अथाह।
लहरें के ही बीच में, उगती रहती चाह।।
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ठहरे योग-वियोग के, मन में हैं अनुभाव।
कोमल और कठोर हैं, नारिकेल के भाव।।
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हरिपद कोमल-कमल से, पड़ जायें जिस धाम।
बन जायें संसार में, उसके सारे काम।।
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उगते-छिपते सूर्य की, लगती छटा अनूप।
संध्या बनकर सुन्दरी, दिखा रही निज रूप।।
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सोमवार, 5 अगस्त 2019
दोहे "दीपशिखा सी शान्त" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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बहुत सुन्दर दोहे हैं ... मनभावन ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर दोहे
जवाब देंहटाएंबहुत खूब लिखी हैं सारी तुकबंदियां शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंआपके एक ब्लॉगपोस्ट की शानदार चर्चा ब्लॉग पंच के प्लेटफार्म पर की जाएगी और उसमें से बेस्ट ब्लॉग चुना जाएगा तो सिर्फ और सिर्फ पाठको की कमेंट के आधार पर ।
जवाब देंहटाएंब्लॉग पंच का उद्देश्य मात्र यही है कि आपके ब्लॉग पर अधिक पाठक आये और अच्छे पाठको को अच्छी पोस्ट पढ़ने मीले ।
एक बार पधारकर आपकी अमूल्य कमेंट जरूर दे
आपका अपना
Enoxo multimedia
बहुत खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएं