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बिना धाँधली हों अगर, निर्वाचन सम्पन्न।
अपना भारत देश फिर, होगा नहीं विपन्न।।
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जनसेवक खुद पालता, चमचे और दलाल।
इसीलिए गलती यहाँ, मक्कारों की दाल।।
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राजनीति में बढ़ रही, वंशवाद की बेल।
नहीं अछूता है कोई, दल-दल का ये खेल।।
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एक बार जो पा गया, लोकतन्त्र में वोट।
सात पीढियों के लिए, कमा गया वो नोट।।
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जनसेवक के वास्ते, आजादी है मन्त्र।
लेकिन जनता के लिए, है ये केवल तन्त्र।।
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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013
"दोहे-लोकतन्त्र में वोट" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री मयंक')
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अपने आका के लिए, भेदे लक्ष्य अचूक |
जवाब देंहटाएंधाँय धाँय धांधल-धड़ा, दाग रहा बन्दूक |
दाग रहा बन्दूक, मार जनगण को जाए |
देता बस्ती फूँक, और सरकार बनाये |
मचती लूट खसोट, मिटाते रविकर सपने |
गोरे गए स्वदेश, अगोरे काले अपने ||
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति का लिंक लिंक-लिक्खाड़ पर है ।। त्वरित टिप्पणियों का ब्लॉग ॥
हटाएंबहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (07-12-2013) "याद आती है माँ" “चर्चामंच : चर्चा अंक - 1454” पर होगी.
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
सादर...!
एक बार जो पा गया, लोकतन्त्र में वोट।
जवाब देंहटाएंसात पीढियों के लिए, कमा गया वो नोट।।
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जनसेवक के वास्ते, आजादी है मन्त्र।
लेकिन जनता के लिए, है ये केवल तन्त्र।।
वोट तंत्र पर सुन्दर कटाक्ष।
सममामयिक दोहे।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना...
जवाब देंहटाएं:-)
वाह क्या बात! बहुत ख़ूब!
जवाब देंहटाएंइसी मोड़ से गुज़रा है फिर कोई नौजवाँ और कुछ नहीं
बहुत ही अच्छे दोहे सामयिक एवं यथार्थपरक ..
जवाब देंहटाएं