बहुत
मज़बूत बन्धन है, इसे कमजोर मत कहना
बँधी
जो प्यार की डोरी, बहुत अनमोल वो गहना
रिवाज़ों
और रस्मों की, यहाँ परवाह है किसको
भले
अवरोध कितने हों, नदी का काम है बहना
ज़माने
के सितम के सामने, झुकना कभी भी मत
मुकद्दर
के थपेड़ों को, हमेशा प्यार से सहना
अमर
है आत्माएँ जब, तो क्यों है मौत से डरना
मुहब्बत
की रवायत है, सलीबों पर टँगे रहना
फिज़ाओं
का भरोसा क्या, न जाने कब बदल जायें
बड़ी
मुश्किल से गुलशन ने, बसन्ती “रूप” है पहना
|
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014
"ग़ज़ल-नदी का काम है बहना" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014
"फरमाइश पर नहीं लिखूँगा" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जो मेरे मन को भायेगा,
उस पर मैं कलम चलाऊँगा।
दुर्गम-पथरीले पथ पर मैं,
आगे को बढ़ता जाऊँगा।।
मैं कभी वक्र होकर घूमूँ,
हो जाऊँ सरल-सपाट कहीं।
मैं स्वतन्त्र हूँ, मैं स्वछन्द हूँ,
मैं कोई चारण भाट नहीं।
फरमाइश पर नहीं लिखूँगा,
गीत न जबरन गाऊँगा।
दुर्गम-पथरीले पथ पर मैं,
आगे को बढ़ता जाऊँगा।।
भावों की अविरल धारा में,
मैं डुबकी खूब लगाऊँगा।
शब्दों की पतवार थाम,
मैं नौका पार लगाऊँगा।
घूम-घूम कर सत्य-अहिंसा
की मैं अलख जगाऊँगा।
दुर्गम-पथरीले पथ पर मैं,
आगे बढ़ता जाऊँगा।।
चाहे काँटों की शय्या हो,
या नर्म-नर्म हो सेज सजे।
सारंगी का गुंजन सुनकर,
चाहे ढोलक-मृदंग बजे।
अत्याचारी के दमन हेतु,
शिव का डमरू बन जाऊँगा।
दुर्गम-पथरीले पथ पर मैं,
आगे बढ़ता जाऊँगा।।
|
बुधवार, 26 फ़रवरी 2014
"भोले-बाबा अब तो आओ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
भोले-बाबा
अब तो आओ।
देश-वेश-परिवेश
बचाओ।।
आपाधापी
पनप रही है,
मेढ़
खेत को हड़प रही है।
लिए
कटोरा भिक्षा का अब,
सोनचिरैया
तड़प रही है।
हुआ
पहाड़ों का तन नंगा,
संकट
में हैं यमुना-गंगा।
लोकतन्त्र
के चरवाहे ही,
बने हुए
हैं स्वयं अड़ंगा।
लगा हुआ
मन्दिर में धावा,
भक्ति
का हो रहा दिखावा।
पंडे
उसका आदर करते,
चढ़ा
रहा जो अधिक चढ़ावा।
सबका
अन्तःकरण सुधारो,
मन की
काम-वासना मारो।
मात-पिता
के सेवक हों सब,
शिवशंकर
का नाम उचारो।
भक्ति अब
बदनाम हो रही,
काँवड़ अब
कुहराम हो रही।
कर्ता-हर्ता-जगतनियन्ता,
मानवता
की शाम हो रही।
आँखें
खोलो, निद्रा त्यागो!
अब तो
हे जगदीश्वर जागो!!
|
मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014
"फूल खिले हैं पलाश में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कितने हसीन
फूल, खिले हैं पलाश में
फिर क्यों भटक रहे
हैं, चमन की तलाश में
पश्चिम की
गर्म आँधियाँ, पूरब में आ गयी
ग़ाफ़िल हुए
हैं लोग, क्षणिक सुख-विलास में
जब मिल गया
सुराज तो, किरदार मर गया
शैतान सन्त सा
सजा, उजले लिबास में
क़श्ती को
डूबने से, बचायेगा कौन अब
शामिल हैं नयी
पीढ़ियाँ, अब तो विनाश में
किसको सही
कहें अब, और कौन ग़लत है
असली ज़हर
भरा हुआ, नकली मिठास में
काग़ज़ के फूल
में, कभी आती नहीं सुगन्ध
मसले गये सुमन
सभी, भीनी सुवास में
बदला हुआ है “रूप”,
रंग और ढंग भी
अन्धे चलें
हैं देखने, दुनिया उजास में
|
सोमवार, 24 फ़रवरी 2014
"सभ्यता का रूप मैला हो गया है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
वातावरण
कितना विषैला हो गया है।
मधुर केला
भी कसैला हो गया है।।
लाज
कैसे अब बचायेगी की अहिंसा,
पल रही चारों
तरफ है आज हिंसा
सत्य
कहने में झमेला हो गया है
मधुर केला
भी कसैला हो गया है।।
अब
किताबों में सजे हैं ढाई आखर,
सिर्फ
कहने को बचे हैं नाम के घर,
आदमी
कितना अकेला हो गया है।
मधुर केला
भी कसैला हो गया है।।
इंसान
के अब दाँत पैने हो गये हैं.
मनुज के
सिद्धान्त सारे खो गये हैं,
बस्तियों
का ढंग बनैला हो गया है।
मधुर केला
भी कसैला हो गया है।।
प्रीत
की अब आग ठण्डी हो गयी है,
पीढ़ियों
की सोच गन्दी हो गयी है,
सभ्यता
का रूप मैला हो गया है।
मधुर केला
भी कसैला हो गया है।।
|
रविवार, 23 फ़रवरी 2014
"खिली हुई है डाली-डाली" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
महावृक्ष है यह सेमल का,
खिली हुई है डाली-डाली।
हरे-हरे फूलों के मुँह पर,
छाई है बसन्त की लाली।।
पाई है कुन्दन कुसुमों ने
कुमुद-कमलिनी जैसी काया।
सबसे पहले धरती पर
आकर इसने ऋतुराज सजाया।।
सर्दी के कारण जब तन में,
शीत-वात का रोग सताता।
सेमलडोढे की सब्जी से,
दर्द अंग का है मिट जाता।।
जब बसन्त पर यौवन आता,
तब ये खुल कर मुस्काते हैं।
भँवरे इनको देख-देखकर,
मन में हर्षित हो जाते हैं।।
सुमन लगे हैं अब मुर्झाने,
वासन्ती अवसान हो रहा।
तब इन पर फलियाँ-फल आये,
लम्बा दिन का मान हो रहा।।
गर्मी का मौसम आते ही,
चटक उठीं सेंमल की फलियाँ।
रूई उड़ने लगी गगन में,
फूलो-फलो और मुस्काओ,
सीख यही देता है सेंमल।
तन से रहो सुडोल हमेशा,
किन्तु बनाओ मन को कोमल।।
|
शनिवार, 22 फ़रवरी 2014
“शैल-सूत्र में प्रकाशित रचना” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मित्रों।
मेरी एक रचना
त्रयमासिक पत्रिका
“शैल-सूत्र”
के अंक अक्टूबर-दिसम्बर
में
पृष्ठ-25 पर
प्रकाशित हुई है।
आपके अवलोकनार्थ इस
रचना को
ब्लॉग पर भी
प्रकाशित कर रहा हूँ।
सुख का सूरज नहीं
गगन में
कुहरा पसरा है आँगन
में
पाला पड़ता शीत
बरसता
सर्दी में सब बदन
ठिठुरता
तन ढकने को वस्त्र
न पूरे
निर्धनता में जीवन
मरता
पौधे मुरझाये गुशन
में
कुहरा पसरा है आँगन
में
आपाधापी और वितण्डा
गैस बिना चूल्हा है
ठण्डा
लोकतन्त्र का आजादी
तो
बन्धक है अब राजभवन
में
कुहरा पसरा है आँगन
में
विदुरनीति का हुआ
सफाया
दुर्नीती ने पाँव
जमाया
आदर्शों को धता
बताकर
देश लूटकर सबने
खाया
खर-पतवार उगी उपवन
में
कुहरा पसरा है आँगन
में
|
शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014
"दोहागीत-लोकतन्त्र का रूप” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
♥ दोहागीत ♥
बात-बात पर हो
रही, आपस में तकरार।
भाई-भाई में नहीं,
पहले जैसा प्यार।।
(१)
बेकारी में भा रहा,
सबको आज विदेश।
खुदगर्ज़ी में खो
गये, ऋषियों के सन्देश।।
कर्णधार में है
नहीं, बाकी बचा जमीर।
भारत माँ के जिगर
में, घोंप रहा शमशीर।।
आज देश में सब
जगह, फैला भ्रष्टाचार।
भाई-भाई में नहीं,
पहले जैसा प्यार।।
(२)
कुनबेदारी ने लिया,
लोकतन्त्र का “रूप”।
सबके हिस्से में
नहीं, सुखद गुनगुनी धूप।।
दल-दल के तो मूल
में, फैला मैला पंक।
अब कैसे राजा हुए,
कल तक थे जो रंक।।
कैसे भी हो आय हो,
मन में यही विचार।
इसीलिए मैली हुई, गंगा
जी की धार।।
(३)
ओढ़ लबादा हंस का,
घूम रहे हैं बाज।
लूट रहे हैं चमन
को, माली ही खुद आज।।
खूनी पंजा देखकर, सहमे
हुए कपोत।
सूरज अपने को
कहें, ये छोटे खद्योत।।
मन को अब भाती
नहीं, वीणा की झंकार।
इसीलिए मैली हुई, गंगा
जी की धार।।
(४)
आपाधापी की यहाँ, भड़क
रही है आग।
पुत्रों के मन में
नहीं, माता का अनुराग।।
बड़ी मछलियाँ खा
रहीं, छोटी-छोटी मीन।
देशनियन्ता पर
रहा, अब कुछ नहीं यकीन।।
छल-बल की पतवार
से, कैसे होंगे पार,
इसीलिए मैली हुई, गंगा
जी की धार।।
|
गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014
"परिश्रमी धुनता काया" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सूरज चमका नीलगगन में, फिर भी अन्धकार छाया
धूल भरी है घर आँगन में, अन्धड़ है कैसा आया
वृक्ष स्वयं अपने फल खाते, सरिताएँ जल पीती हैं
भोली मीन फँसी कीचड़ में, मरती हैं ना जीती हैं
आपाधापी के युग में, जीवन का संकट गहराया
मौज मनाते बाज और भोली चिड़ियाएँ सहमी हैं
दहशतगर्दों की उपवन में, पसरी गहमा-गहमी हैं
साठ-गाँठ करके महलों ने, जुल्म झोंपड़ी पर ढाया
खून-पसीने से श्रमिकों की, फलते हैं उद्योग यहाँ
निर्धनता पर जीवन भारी, शिक्षा का उपयोग कहाँ
धनिक-बणिक धनवान हो गये, परिश्रमी धुनता काया
अन्धे-गूँगे-बहरों की, सत्ता-शासन में भरती है
लेकिन जनता लाचारी में, मँहगाई से मरती है
जो देता माया की झप्पी, उसको ही मिलती छाया
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