भोले-बाबा
अब तो आओ।
देश-वेश-परिवेश
बचाओ।।
आपाधापी
पनप रही है,
मेढ़
खेत को हड़प रही है।
लिए
कटोरा भिक्षा का अब,
सोनचिरैया
तड़प रही है।
हुआ
पहाड़ों का तन नंगा,
संकट
में हैं यमुना-गंगा।
लोकतन्त्र
के चरवाहे ही,
बने हुए
हैं स्वयं अड़ंगा।
लगा हुआ
मन्दिर में धावा,
भक्ति
का हो रहा दिखावा।
पंडे
उसका आदर करते,
चढ़ा
रहा जो अधिक चढ़ावा।
सबका
अन्तःकरण सुधारो,
मन की
काम-वासना मारो।
मात-पिता
के सेवक हों सब,
शिवशंकर
का नाम उचारो।
भक्ति अब
बदनाम हो रही,
काँवड़ अब
कुहराम हो रही।
कर्ता-हर्ता-जगतनियन्ता,
मानवता
की शाम हो रही।
आँखें
खोलो, निद्रा त्यागो!
अब तो
हे जगदीश्वर जागो!!
|
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बुधवार, 26 फ़रवरी 2014
"भोले-बाबा अब तो आओ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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भक्ति अब बदनाम हो रही,
जवाब देंहटाएंकाँवड़ अब कुहराम हो रही।
कर्ता-हर्ता-जगतनियन्ता,
मानवता की शाम हो रही।
बहुत खूब,सुंदर रचना...!
RECENT POST - फागुन की शाम.
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27-02-2014 को चर्चा मंच पर दिया गया है
जवाब देंहटाएंआभार |
bahut sundar aadhyatmik prastuti .mahashivratri kee hardik shubhkamanyen .
जवाब देंहटाएंमहाशिवरात्रि की सबको शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंसुंदर ! कल आ तो रहे हैं :)
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रवाहमय भक्ति गीत ,महाशिवरात्रि की सबको शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंशिवरात्रि की बहुत - बहुत शुभकामनाएं ....
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अभिव्यक्ति
भव के भाव भीति भू भूषण भोगो को कब त्यागेगा..,
जवाब देंहटाएंभगवन जागे बैठा कबसे रे भगता तू कब जागेगा.....
बहुत सुन्दर प्रार्थना भोले बाबा से !सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंNew post तुम कौन हो ?
new post उम्मीदवार का चयन
अतिसुन्दर रचना महादेव को प्रतिष्ठापित करती जन जन में। परिवेश का गुम्फन लिए :
जवाब देंहटाएंआपाधापी पनप रही है,
मेढ़ खेत को हड़प रही है।
लिए कटोरा भिक्षा का अब,
सोनचिरैया तड़प रही है।
हुआ पहाड़ों का तन नंगा,
संकट में हैं यमुना-गंगा।
लोकतन्त्र के चरवाहे ही,
बने हुए हैं स्वयं अड़ंगा।