अब नही मैं दासता का भार ढोना चाहता हूँ। मैं जगत के बन्धनों से, मुक्त होना चाहता हूँ।। काटने को फसल सुख की जुड़ गये सब, दुःख आया तो पलट कर मुड़ गये अब, सभ्यता के नगर में आबाद होना चाहता हूँ। मैं जगत के बन्धनों से, मुक्त होना चाहता हूँ।। जो तुम्हारे मन में आये, वो करो तुम, फूल तज कर शूल से उल्फत करो तुम, कैद को मैं छोड़कर, आजाद होना चाहता हूँ। मैं जगत के बन्धनों से, मुक्त होना चाहता हूँ।। राह हैं सीधी-सरल, पर हो गये दिल तंग है, स्वार्थ की परमार्थ से, होती सदा ही जंग है, आँसुओं से सींचकर मैं प्यार बोना चाहता हूँ। मैं जगत के बन्धनों से, मुक्त होना चाहता हूँ।। |
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शनिवार, 1 फ़रवरी 2014
“जगत के बन्धनों से मुक्त होना चाहता हूँ” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह , बेहतरीन अभिव्यक्ति !!
जवाब देंहटाएंएक दिन तो वैसे ही सब छोड़कर जाना है।
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